शनिवार, 31 दिसंबर 2011

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !



  डॉलर के मुकाबले  
भाव हमें न मिले
सेंसेक्‍स में अपने
नहीं आया उछाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
ऊपर वाले से गिला
हाय यह क्‍या सिला
छप्‍पर टूटा  ही रहा
और जल गई पुआल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
चले थे  जहां से हम
वहीं  आ  थमे कदम
बीत गया यूं ही बरस
हुआ नहीं कोई कमाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
सपनों  को  थल नहीं
कश्‍ती को साहिल नहीं
उत्‍तरों  के हर द्वार पे
खड़े हैं  ज्‍वलंत सवाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
दुनिया  में शोर हुआ
चर्चा भी घनघोर हुआ
भ्रष्‍टासुर संग साथ हैं
2012  बिन लोकपाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
मजदूर  हैं  सब
मजबूर नहीं  रब
कुछ सोचे, समझे
हो न जाए बवाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
                           *            
                                       0 राजेश उत्‍साही


बुधवार, 28 दिसंबर 2011

विचार भी एक पत्‍ता है




पेड़ों पर
नए पत्‍ते
तब तक नहीं आते
जब तक कि
पुराने झड़ नहीं जाते..

विचार
भी पत्‍ते हैं।
0 राजेश उत्‍साही

रविवार, 18 दिसंबर 2011

स्वेटर बनाम सपना

                                                                           फोटो : राजेश उत्‍साही 
बुनना
बेकार नहीं है चाहे
स्वेटर हो
या सपना
दोनों
जरूरत से उपजते हैं


बुने गए हों अगर
दिल और दिमाग से
तो बहुत काम आते हैं
जिंदगी भर


स्वेटर
सर्द वक्त के
लिए रखता है ऊष्‍मा
अपने में संजोकर


स्वेटर
किसी की
गर्म सांसों का अहसास-सा है


स्वेटर
रहता है
सालों साल साथ हमारे
अतीत की न जाने
कितनी यादों के एलबम की
तरह


होना
स्वेटर का
एक तसल्ली देता है
हरदम हमें


सपना या सपने
जब तक नहीं होते
साकार
रहते हैं साथ हमारे
भविष्य की घटनाओं की तरह


स्वेटर
की तरह सपनों की ऊष्मा
कम होती रहती है
धीरे-धीरे


स्वेटर
की तरह
सहेजते रहना
सपनों को
बनाता है जिंदगी को
कहीं अधिक आस्थावान
ऊष्मावान


इसलिए
बुनना
बेकार नहीं है
चाहे स्वेटर हो
या फिर सपना।

0 राजेश उत्‍साही 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

अदि‍ति से



एकलव्‍य में कार्यरत दीपाली शुक्‍ला ने हाल ही में कैमरा खरीदा है। और वे पिछले कुछ दिनों से फोटोग्राफी में हाथ आजमा रही हैं। वे कविताएं और कहानियां लिखती रहीं हैं। मुझे यह देखकर सुखद आश्‍चर्य हो रहा है कि उनकी उतारी तस्‍वीरें भी किसी कविता से कम नहीं हैं। पिछले दिनों भोपाल के मानव संग्रहालय का भ्रमण करते हुए उन्‍होंने कुछ तस्‍वीरें उतारीं। इन्‍हें उन्‍होंने फेसबुक पर सबके साथ साझा किया है। इनमें से दो तस्‍वीरों ने मुझे बेहद रोमांचित किया है। पहली तस्‍वीर पर आधारित आत्‍मविश्‍वास कविता आप पढ़ चुके हैं। यह रही दूसरी तस्‍वीर और उस पर आधारित कविता। पहली कविता प्रकाशित होने पर अदिति ने अपनी टिप्‍पणी में लिखा कि तस्‍वीर की दो लड़कियों में से एक वह है। इस तस्‍वीर में केवल अदिति ही है। एक बार फिर शुक्रिया, दीपाली और अदिति । 

क्‍लांत नहीं हो तुम
नहीं हो तुम उदास
इंतजार नहीं है तुम्‍हें
उसका जिसे देखा नहीं है तुमने
सोचा नहीं है जिसके बारे में अब तक
मुझे पता है

तुम्‍हारे माथे पर
कोई सलवटें नहीं हैं
नहीं है तुम्‍हारी आंखों में खामोशी
झलक नहीं रहा है तुम्‍हारे चेहरे से तनाव
मुझे पता है

तुम्‍हारे कोमल पैरों के तलुए
अभी अछूते हैं छालों से
तुम्‍हारी ऐडि़यां परिचित नहीं है बिवाईयों से
मुझे पता है


मुझे तुमसे
बहुत उम्‍मीदें हैं
उम्‍मीदें इसलिए कि
तुम अंधेरी कोठरी से निकलकर
इस धवल लिबास में
पवित्रता की प्रतिनिधि लग रही हो
लग रही हो जैसे कोई हंसनी
आ बैठी हो पंख फैलाए
तुम्‍हारी दूधिया आंखों से
सुनहरे सपनों का उजास उमड़ा आ रहा है


मुझे तुमसे
बहुत उम्‍मीदें हैं
उम्‍मीदें इसलिए कि
कलाई में सजी
घड़ी परिचायक है
कि तुम समय की नब्‍ज पहचानना सीख रही हो
कलाई में बंधा और गले में पड़ा रंगीन धागा बता रहा है
कि अपनी संस्‍कृति और जीवन मूल्‍यों में आस्‍था है तुम्‍हारी
यूं गोबर लिपे फर्श पर आत्‍मीयता से बैठना
बताता है कि तुम जुड़ी हो जमीन से


मुझे तुमसे
बहुत उम्‍मीदें हैं
उम्‍मीदें हैं इसीलिए मैं बस इतना ही कहूंगा
समय के साथ चलना,
आस्‍था रखना, पर मत बनने देना उसे पैरों की बेड़ी
जमीन पर रहना , पर आकाश को मत करना अनदेखा
चाहे तुम समझना इसे
हिदायत, सलाह या कि चेतावनी मेरी
दुनिया को आसान समझना
पर उतनी नहीं, जितनी नजर आती है वह।

0 राजेश उत्‍साही
(6 दिसम्‍बर,2011)

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एक अनुरोध : मेरी पिछली कविता 200 से अधिक लोगों ने पढ़ी। लेकिन प्रतिक्रिया केवल 25 से कुछ अधिक लोगों ने व्‍यक्‍त की।कुछ पाठक टिप्‍पणी बाक्‍स में प्रतिक्रिया करने से कतराते हैं या उन्‍हें मुश्किल लगता है। ऐसे सुधी पाठक अपनी प्रतिक्रिया ईमेल से भी भेज सकते हैं। मेरा ईमेल है utsahi@gmail.com । पाठकों की प्रतिक्रिया  महत्‍वपूर्ण है।

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