सोमवार, 31 दिसंबर 2012

2013 तुम्‍हें आखिर आना ही था


                                                                                            फोटो : राजेश उत्‍साही
नए साल में सबको सुख हो
नए साल में कोई न दुख हो
कहने   को कवि कह जाता
चाहे इसकी कोई न तुक हो
*
नए साल के नए हों सपने
नए साल में नए हों अपने
हम तो यह भी आशा करते
आततायी लगें डर से कंपने
*
नए साल का नया हो गाना
नए साल का नया हो बाना
हो सके तो आप भी कर लो
दिल का कोई नया ठिकाना
* 
नए साल में सबको सुरक्षा
नए साल में सब हो अच्‍छा
रोजगार मिले सब हाथों को
मिले हरेक बच्‍चे को शिक्षा
*
नए साल के नए संकल्‍प
नया साल दे नए विकल्‍प
प्रश्‍नों का तो अंत नहीं है
कुछ को तो कर पाएं हल
*
नए साल में नया तंत्र हो
नए साल में नया मंत्र हो
सब मिलकर करें कुछ ऐसा
सचमुच का तो लोकतंत्र हो
*
 नए साल की नई है भाषा
 नए साल में नई प्रत्‍याशा
 बेहतर टिकाऊ समाज की
गढ़नी है अब नई परिभाषा
                       
   0 राजेश उत्‍साही  


शनिवार, 22 दिसंबर 2012

मैं भी हूं आंदोलित



                                      फोटो : राजेश उत्‍साही

।। एक ।।
बेशक
सब बलात्कारियों को
चुन चुनकर चढ़ा दो फांसी पर  
वे दोषी हैं

उन्‍होंने नहीं समझा स्‍त्री को मानव  
समझा केवल भोग्‍या

पर क्‍या तुमने समझा है
राह चलते जब बजती हैं सीटियां
सुनकर भी तुम अनजान बने रहते हो
कसे जाते हैं जब फिकरे
गली के कोनों में मेहमान बने रहते हो

तुम्‍हारी ही आंख के नीचे
होते हैं भद्दे इशारे
सुनाए जाते हैं दो अर्थों वाले चुटकुले और गाए जाते हैं गीत
हर स्‍त्री को समझा जाता है चीज

अपने दिल पर हाथ रखकर पूछो
क्‍या तुम नहीं हो इसमें शामिल ?

।। दो ।।
मारना होगा
हम पुरुषों को अपने अंदर बैठे
वासना के उस भेडि़ए को
जो तब जब देखकर मौका
हो उठता है कामातुर
न मार सकें अगर उसे
तो खुद ही डूब मरें पानी पानी होकर 

भेडि़या हममें से किसी में भी हो सकता है
हम अपने को न मान लें दूध का धुला।


।। तीन ।।
सोचता हूं मैं
रोज सुबह बैठा हुआ
शेयर आटो में किसी अनजान महिला से सटकर
उसके स्‍पर्श से
क्‍यों नहीं जागती मुझमें कोई उत्‍तेजना
क्‍यों महसूस नहीं करता हूं मैं स्‍पर्श,
कि कुंद हो गई हैं मेरी इंद्रियां
या कि बंधा हूं मैं अलिखित सामाजिक नियमों से
या कि डरता हूं मैं ,
अपनी तथाकथित सामाजिक हैसियत 
और इज्‍जत के मटियामेट हो जाने से

या कि मैं प्‍यार करता हूं स्‍त्री मात्र से
प्‍यार करता हूं मैं स्‍त्री के अहसास से
उसके रूप से, उसके मोहक भाव से
उसके संपूर्ण अस्तित्‍व से  

आदर करता हूं मैं
अपने अंदर बसी स्‍त्री से
जो समझती है मां, बहन, बेटी, पत्‍नी और प्रेयसी को भी
और उससे भी बढ़कर एक हमजात को
सोचता हूं मैं।
0 राजेश उत्‍साही

रविवार, 16 दिसंबर 2012

हमारे हाथ

रूम टू रीड के लिए 2008 में  लिखी गई इस कविता का  



पोस्‍टर  भी  रूम टू रीड ने  प्रकाशित किया है।

रविवार, 9 दिसंबर 2012

दोस्‍त


पुराने शहर के
दोस्‍त हैं कि बहुत याद करते हैं
ईमेल पर फेसबुक पर
एसएमएस पर
फोन पर
लुटाते हैं लाड़ प्‍यार

लेकिन जब जाता हूं शहर
साल छह महीने में  
चाहे जितना स्‍टेटस लगाऊं
चाहे जितना फेसबुक पर चिल्‍लाऊं
कोई मिलने नहीं आता

सच तो यह है कि मैं भी कहां जाता हूं
दोस्‍त हैं कि बहुत याद आते हैं।
0 राजेश उत्‍साही      

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