शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

गाता है छोकरा: तीन

                                             'हमकलम' में  इस कविता के लिए रेखांकन :कैरन हैडॉक

छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्‍सटास की चादर के
दो-दो छोटे टुकड़े

फंसाकर
उंगलियों के बीच
बजाता है छोकरा
गाता है गीत
इकट्ठा करता है मजमा

मजमा
सुनता है
छोकरे के बचपन से
जवानी के गीत
और उसकी आने वाली जवानी को
बना देता है बुढ़ापा

छोकरा
गाता है रखकर कलेजा
गले में
दो सांप लहराते हैं
उसके गले में

छोकरे की आंख में
होता है
दो रोटियों का आकाश और
एक कप चाय का गहरा समुद्र

छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्‍सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े 
0 राजेश उत्‍साही 
(छोकरा एक और दो के लिए क्रमश: छोकरा:एक और छोकरा:दो पर क्लिक करें।)

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

चमकाता है छोकरा : दो

                   'हमकलम' में  इस कविता के लिए रेखांकन :कैरन हैडॉक
छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्‍बों वाला बेडौल झोला

झोले में
बिल्‍ली छाप पालिश होता है
चेरी ब्‍लासम की डिब्‍बी में
काला और लाल

ब्रश होते हैं
मोटी और पतली नोकों वाले
नरम और सख्‍त बालों वाले
होते हैं कुछ
पुराने कपडे़ झोले में

उतरी हुई
स्‍कूल यूनीफार्म पहने
किसी की
घूमता रहता है
बस अड्डे,रेल्‍वे स्‍टेशन
बाग या भीड़ में

उसकी नजरें ढूंढती हैं
सिर्फ चमड़े के चप्‍पल-जूते

वाले पैर
ढेर सारे पैर

पैरों पर टिका होता है
उसका अर्थशास्‍त्र
मां को देने के लिए
बाप को दिलाने के लिए शराब
और अपनी शाम की पिक्‍चर का बजट

हर वक्‍त
देखता है छोकरा नीचे
देखता है पैरों की हरकत
बोलता है बस एक वाक्‍य
साब पालिश, बहिन जी पालिश

कुछ खींच लेते हैं
पैर पीछे
कुछ बढ़ा देते हैं
पैर आगे

वह उतारता है
सलीके से चप्‍पल पैर से
पैर से जूते
साफ करता है
धूल-मिट्टी ऐसे
जैसे साफ करती है मां
उसका चेहरा

वह चमकाता है
जूते को,चप्‍पल को
और बकौल चेरी ब्‍लासम के
साब की किस्‍मत को

कहता है लीजिए साब
देखिए अपना चेहरा
साब झुककर देखते हैं अपना
चेहरा जूते में

थूक देता है
छोकरा
साब के चेहरे पर
जूते में
और फिर चमकाने लगता है
जूता

जूता
चमकाता है छोकरे को
छोकरा
चमकाता है जूते को


छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्‍बों वाला बेडौल झोला
0
राजेश उत्‍साही
(छोकरा : एक पढ़ने के लिए यहां जाएं।)

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

छोकरा कविताएं और उनका छुकरपना

मेरी ये कविताएं 1982-83 के आसपास की हैं। तब मेरी योजना थी कि छोकरा शीर्षक से कुछ नहीं तो दस-बारह कविताएं लिखूंगा। पर बात तीन से आगे नहीं बढ़ी। 

पर इन कविताओं से एक के बाद एक किस्‍से जुड़ते चले गए। मप्र साहित्‍य परिषद की एक पत्रिका है साक्षात्‍कार 1982 में मेरी एक कविता नूर मोहम्‍मद और उसका घोड़ा  उसमें प्रकाशित हुई थी। उन दिनों सोमदत्‍त   संपादक थे। सोमदत्‍त जी ने कुछ सुझाव देते हुए कविता मुझे वापस भेजी और कहा कि अगर आप कविता का कुछ हिस्‍सा निकाल दें तो देखेंगे कि कविता में कितनी कसावट आ जाती है। सचमुच सोमदत्‍त जी ने मुझे एक नई दृष्टि दे दी थी। मैंने स्‍वयं कविता का संपादन किया और सोमदत्‍त जी को भेज दी। कविता साक्षात्‍कार में प्रकाशित हुई। साक्षात्‍कार के इसी अंक में हरिशंकर परसाई का एक व्‍यंग्‍य लेख भी था। बाएं पृष्‍ठ पर मेरी कविता थी और दाएं पृष्‍ठ से परसाई जी का लेख शुरू होता था। मेरे जैसे नौजवान लेखक के लिए यह भी एक उपलब्धि थी। बहरहाल मैंने उत्‍साहित होकर कुछ समय बाद अपनी दस-बारह कविताएं साक्षात्‍कार में प्रकाशन के लिए भेज दीं। बहुत दिनों तक उनका कोई जवाब नहीं आया। लगभग चार साल बाद 1987 में मुझे एक सूचना मिली। रायपुर में मप्र की युवा कविता  समारोह आयोजित किया जा रहा है। आयोजन मप्र हिन्‍दी साहित्‍य परिषद कर रही है। चुने हुए युवा कवियों में मेरा नाम भी था। समारोह की अध्‍यक्षता त्रिलोचन जी कर रहे थे। जहां तक मुझे याद है हम सात या आठ कवियों को उसमें शिरकत करना थी। अपने अलावा तीन नाम मुझे याद हैं। एक नाम है आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्‍ताक्षर कुमार अंबुज का । दूसरा नाम जाने-माने व्‍यंग्‍यकार कैलाश मंडलेकर  का और तीसरा नाम शायद मेरी ही तरह कहीं खो गए राजीव सभरवाल का। जो कविताएं मुझे इस समारोह में पढ़नी थीं, उनमें ये तीन भी शामिल थीं। अफसोस की बात यह है कि इस समारोह में मैं नहीं जा पाया। यह अफसोस मुझे अब तक है। समारोह बहुत सफल रहा था। मुझे लगता है इस समारोह में अगर मैं जा पाता तो शायद मेरे लेखन की दिशा ही कुछ और होती।

जा पाने का कारण भी खास था। पहले समारोह मई में आयोजित था। मैंने जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। फिर किसी कारण से समारोह जुलाई तक के लिए स्‍थगित कर दिया गया। मैं चकमक के संपादन से जुड़ा था। जुलाई में कुछ स्थितियां ऐसी बनीं कि मुझे पत्‍नी निर्मला और एक साल के बेटे कबीर को लेकर भोपाल स्‍थानांतरित होना पड़ा। खैर फिर मैं सब कुछ भूलकर चकमक में रम गया। 

सबसे पहले इन कविताओं को 1988 में चंडीगढ़ विश्‍वविद्यालय के कैम्‍पस से निकलने वाली एक सायक्‍लोस्‍टाइल पत्रिकाहमकलम में जगह मिली। यह पत्रिका आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्‍ताक्षर लाल्‍टू  और रूस्‍तमसिंह  अपने साथियों के साथ मिलकर निकालते थे। रूस्‍तम भी सुपरिचित कवि, अनुवादक और संपादक हैं। एक जमाने में वे इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली  (ईपीडब्‍ल्‍यू) में थे। फिर कुछ समय महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के संपादक रहे। आजकल एकलव्‍य  के प्रकाशन कार्यक्रम में कार्यरत हैं।

हमकलम में इन कविताओं को इनके चरित्र के अनुरूप बने चित्रों के साथ छापा गया था। जो पाठक सायक्‍लोस्‍टाइल तकनॉलॉजी को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि स्‍टेंसिल पर चित्र बनाना कितने धैर्य का काम है। ये चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। कैरन आज जानी-मानी चित्रकार हैं। महिला आंदोलन से जुड़े तमाम साहित्‍य में उनके चित्र देखे जा सकते हैं। उनके चित्रों में पेन की रेखाओं और पेन से बने बिन्‍दुओं का गजब का मिश्रण होता है। पत्रिका के आवरण पर मेरी कविता का ही चित्र था। कविताएं भी टाइप नहीं की गई थीं, हस्‍तलिपि में थीं।

इन कविताओं का एक बहुत-ही अनोखा इस्‍तेमाल दुनु राय और उनके साथियों ने मप्र के शहडोल जिले के अनूपपुर कस्‍बे में किया था। वे उन दिनों वहां एक संस्‍था विदूषक कारखाना  से जुड़े थे। असल में संस्‍था बनाने वालों में से दुनु राय स्‍वयं एक थे। दुनु राय इंजीनियर हैं, पर आज उनकी पहचान एक समाजशास्‍त्री, पर्यावरणविद् और शिक्षाशास्‍त्री,लेखक के रूप में कहीं अधिक है। उन्‍होंने मेरी इन कविताओं को टाट से बने बड़े साइनबोर्ड पर लिखवाकर अनूपपुर के एक चौराहे पर लटकाया था। यह भी 1988-89 की बात है।

1990 के आसपास हम लोगों ने चकमक का एक अंक बालश्रम पर निकाला। इस अंक में इनमें से दो कविताएं प्रकाशित की गईं थीं। चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। तो चलिए अब आप भी पढ़ लीजिए।
              'हमकलम' में  इस कविता के लिए रेखांकन :कैरन हैडॉक
छोकरा : एक

बुधवार, 3 नवंबर 2010

दिल एक गोदाम

                                                 फोटो: राजेश उत्‍साही 
दिल
एक संग्रहालय
विशाल संग्रहालय है
रखी हैं सहेजकर उसमें नोक-झोंक वाली
मीठी-खट्टी बातें
ढेर सारी प्यार की बातें

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

मरने से पहले

              

                                                                     छाया: राजेश उत्‍साही
                                                                                                                     
मैं 
बिखर जाने से पहले 
जीना चाहता हूं
फूल भर जिन्‍दगी
महकाना चाहता हूं
सुवास अपनी


मैं
हवाओं में विलीन होने से पहले
हंसना चाहता हूं
उन्‍मुक्‍त हंसी
भरकर फेफड़ों में
शुद्ध प्राणवायु


मैं
नष्‍ट होने से पहले
चूमना चाहता हूं
एक जोड़ी पवित्र होंठ
तृप्‍त होने तक

मैं
देह विहीन से होने से पहले
स्‍वीकारना चाहता हूं
अपराध अपने
ताकि
रहे आत्‍मा बोझविहीन

मैं
चेतना शून्‍य होने से पहले
सोना चाहता हूं
रात भर
इत्‍मीनान से
ताकि न रहे उनींदापन

सच तो
यह है कि
मैं
मरना नहीं चाहता हूं   
मरने से पहले ।

0 राजेश उत्‍साही

 **************
रश्मिप्रभा जी और रवीन्‍द्र प्रभात जी द्वारा संचालित ब्‍लाग वटवृक्ष पर यह कविता  27 अक्‍टूबर प्रात: 11 बजे से 28 अक्‍टूबर की दोपहर बाद 4 बजे तक लगभग 30 घंटे तक रही। मैं वटवृक्ष का आभारी हूं। वटवृक्ष पर आए पाठकों ने क्‍या कहा उसका एक संक्षिप्‍त विवरण यहां है। वंदना, संजय भास्‍कर, एम वर्मा, वाणी गीत, मुकेश कुमार सिन्‍हा : एक सुन्‍दर सकारात्‍मक सोच दर्शाती रचना। नरेन्‍द्र व्‍यास, कविता रावत, सुज्ञ, सुनील कुमार : आत्‍म मंथन का सुन्‍दर चिंतन और दार्शनिक भाव। देवेन्‍द्र पाण्‍डेय: अंतिम पंक्तियों में कविता अपने पत्‍ते खोलती है। एक सशक्‍त कविता। 

अरुण सी राय: कविता शुरू से साधारण लगती हुई अचानक अंतिम पंक्तियों में असाधारण हो जाती है.. जीवन के प्रति अदम्य जिजीविषा इन पक्तियों में है.. जहाँ आज के समय में जब मूल्य बदल रहे हैं, जीवन के मायने बदल रहे हैं.. एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं हम.. खास तौर पर मानसिक स्तर पर.. हम हर पल किसी ना किसी तरह मर रहे हैं.. ऐसे में यह कविता जीवन के प्रति प्रतिबद्धित दिखती है।  

बिहारी ब्‍लागर यानी सलिल वर्मा: ज़िंदगी को नापने का पैमाना ही हमने बरसों का बना लिया है,जबकि ज़िंदगी तो बस जीने और मरने के दो खूँटे के बीच की दौड़ है. कवि ने जीवन की इस दौड़ के जिन पड़ाव का वर्णन किया है, वही जीवन को जीवन बनाते हैं और उनका न होना मृत्यु! राहुल सिंह: 'मरना नहीं चाहता हूं, मरने से पहले' इसीलिए तो कविता बन पाई है। प्रवीण पाण्‍डेय: जीवन को जी लेने की उत्कट अभिलाषा, समय का चौंधियाना हमारी आँखों में, बचने का उपक्रम, छाँह ढूढ़ने का प्रयास। 

बलराम अग्रवाल: 'वस्तुत: तो यह मानवीय सरोकारों की कविता है। इसमें 'मैं' को 'व्यष्टिवाची' न देखकर 'समष्टिवाची' देखने से यह व्यापक अर्थयुक्त कविता है। कवि को इस व्यापक सहृदयता के लिए बधाई।' शिखा वार्ष्‍णेय, अजित वडनेकर,आशीष,ZEAL, मजाल,अंजाना को भी कविता अच्‍छी लगी। 

 ..........अब आपकी बारी है।

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

वह औरत

जब मैंने लिखना शुरू किया तो इस तरह की कविताएं भी लिखीं। तब यह बताने वाला कोई नहीं होता था, लिखी गई कविता का मजबूत पक्ष कौन-सा है और कमजोर कौन-सा। यह कविता मैंने मशहूर लघु पत्रिका ‘पहल’ में प्रकाशन के लिए भेजी,जिसे जाने-माने कथाकार ज्ञानरंजन संपादित करते थे। कविता उनकी इस टिप्‍पणी के साथ वापस लौट आई कि फिलहाल इस साल प्रकाशित होने वाले अंकों के लिए उनके पास पर्याप्‍त रचनाएं हैं, इसलिए इसका उपयोग नहीं हो पाएगा। पहल के साल भर में चार अंक निकलते थे। मैंने मान लिया कि मेरी कविता पहल में छपने योग्‍य है। मैंने साल भर इंतजार किया और फिर ज्ञानरंजन जी को उनकी बात याद दिलाते हुए अपनी यह कविता भेज दी। इस बार उन्‍होंने कविता के मजबूत और कमजोर पक्ष बताते हुए कविता को लौटा दिया। इस पर मेरे और उनके बीच छह माह तक लम्‍बा पत्र-संवाद हुआ। मेरी शिकायत यही थी कि यह बात वे साल भर पहले भी कह सकते थे। अगर मैं दुबारा कविता नहीं भेजता तो मुझे अपनी कविता के बारे में उनकी महत्‍वपूर्ण राय पता ही नहीं चलती। उनकी राय और मेरे तर्क क्‍या थे यह सब पत्रों में मेरे पास सुरक्षित है। कभी मौका हुआ तो उसकी चर्चा करुंगा।

फिलहाल आप क्‍या कहते हैं-

वह
पत्‍थर तौडती औरत
उस ठेकेदार का
सिर क्‍यों नहीं फोड़ देती
जो देखता है उसे गिरी हुई नजरों से

पूछना चाहता हूं
अचानक मेरे पूछने से पहले ही
उसकी आंखें बोल उठती हैं
बेटा
आखिर तुम किसलिए हो

अचकचाकर
मैं उसे देखता हूं
मुझे वह औरत
अपनी मां नजर आने लगती है

और मैं एक बेटे
का कर्त्‍तव्‍य निभाने के लिए
कृत संकल्‍प हो उठता हूं

अपने सीने में
ताजी लम्‍बी सांस भरकर,
आंखों में खून का
सागर लहराते हुए
अपने मुंह का सारा थूक इकट्ठा कर
बंधी मुट्ठियों को सख्‍त करते हुए
दांतों को एक-दूसरे में
धंसाने की कोशिश करता हुआ
सिगरेट का धुआं उड़ा रहे
उस ठेकेदार की ओर बढ़ता हूं

पर शायद,
उसकी घाघ दृष्टि
मेरा अभिप्राय जान जाती है
मेरा हाथ
उसकी गर्दन तक पहुंचे

उससे पहले ही
चार सण्‍ड, मुसण्‍ड गुण्‍डे
मुझे उठाकर आकाश में
उछाल देते हैं

सारी पृथ्‍वी
घूमने लगती है
वह औरत
मुझे भारत मां नजर आने लगती है

जो आजादी के
तीन दशक बाद भी
अव्‍यवस्‍था, अराजकता, भ्रष्‍टाचार ,
अवसरवाद, सत्‍ता और स्‍वार्थ के ठेकेदारों के चुंगल से
मुक्‍त नहीं हो पाई है

और अपनी बेडि़यों
को तोड़ने का असफल प्रयास करते हुए
अपने बेटों से उनका
कर्त्‍तव्‍य पूछती है

मुझ जैसे उसके कई बेटे
अपने कर्त्‍तव्‍य को‍ निभाने के लिए
आगे बढ़ते हैं
पर इन ठेकेदारों तक
पहुंचने से पहले ही
उन्‍हें आकाश में उछाल दिया जाता है
हमेशा के लिए
हमेशा हमेशा के लिए। 
                    0 राजेश उत्‍साही 

(सागर मप्र से निकलने वाले एक साप्‍ताहिक अखबार ‘गौर दर्शन’ के 1983 के गणतंत्र विशेषांक में प्रकाशित)

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

कवि, कविता और बयान

इन कविताओं का रचनाकाल 2006 के आसपास का है। बंगलौर आने से पहले मैं मप्र की जानी मानी शैक्षणिक संस्‍था एकलव्‍य में काम कर रहा था। एकलव्‍य में हर छह माह में तीन से चार दिन की एक ग्रुप मीटिंग होती है जिसमें संस्‍था के सभी सदस्‍य भाग लेते हैं। एकलव्‍य में मेरी पहचान एक कवि के रूप में स्‍थापित है। आमतौर पर ऐसी मीटिंग के अवसर पर मैं अपनी कविताएं मीटिंग स्‍थल के नोटिस बोर्ड पर चस्‍पा करता रहा हूं। 2006 की मीटिंग में मैंने कोई कविता नहीं लगाई। तो साथियों ने मुझसे यह सवाल पूछ लिया कविता कहां है। जिसके जवाब में मैंने वहीं ये दो कविताएं लिखीं। सामान्‍यतौर पर मेरी रचना प्रक्रिया यह है कि मैं अपनी कविताएं कम से कम 15 से 20 दिन के बाद ही सामने लाता हूं। पर यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि 'बापू के नाम चार कविताएं' मैंने लिखने के एक घंटे के भीतर ही ब्‍लाग पर पोस्‍ट कर दी थीं।

ये कविताएं पिछले दिनों आखरकलश पर पहली बार प्रकाशित हुई हैं। आखरकलश में भेजने से पहले मैंने इन्‍हें फिर से लिखा है। आपमें से कईयों ने इन्‍हें वहां पढ़ लिया होगा। अगर आपको अच्‍छी लगीं थीं तो दुबारा भी पढ़ ही सकते हैं।    


कवि भी एक कविता है
पढ़ो
कि कवि भी
एक कविता है
कवि
जो महसूस करता है
अंतस में अपने
वही अपनी उंगलियों की नोक से
उतारता है पेपर पर
या कि कम्‍प्‍यूटर पर

कवि
जो महसूस करता है
वह दौड़ता रहता है उसकी रगों में
वही उभरता है उसके चेहरे पर

कविता
जब तक पक नहीं जाती
(बेशक वह कवि का भात है)

या कि
जब तक वह उबल नहीं जाती
(बेशक वह कवि की दाल है)

या कि
जब तक वह पल नहीं जाती
(बेशक वह कवि की संतान है)

तब तक
छटपटाती है
कवि के अंतस में
छलकती है चेहरे पर

इसलिए
पढ़ो
कि कवि
स्‍वयं भी एक कविता है
बशर्ते कि तुम्‍हें पढ़ना आता हो!
              
कविता बिना कवि
कविता
के बिना
एक कवि का आना
शायद
उतना ही बड़ा आश्‍चर्य है
जितना
बिना हथियार के
घूमना ‘डॉन’ का

डॉन
शरीर पर चोट
पहुंचाता है
कवि
आत्‍मा पर वार करता है
शरीर की चोट
घंटों,दिनों,हफ्तों या कि
महीनों में भर जाती है
आत्‍मा
पर लगी चोट
सालती है
वर्षों नहीं, सदियों तक

इसलिए
कवि को आश्‍यर्च
नहीं होना चाहिए
कि उससे पूछा जाए
कहां है उसकी कविता ?
           0 राजेश उत्‍साही 


कविताएं आपने पढ़ ही हैं। टिप्‍पणी करने से पहले यह पढ़ते जाएं कि आखरकलश पर मित्रों ने क्‍या कहा था।  

रश्मि रवेजा के शब्‍दों में, ‘बहुत ही गूढ़ बात कही है, दोनों कविताओं में सचमुच कवि स्वयं भी एक कविता है ...और कवि की बातें ..आत्मा को झिंझोड़ डालती हैं.’ 

सुभाष राय ने कहा,. दोनों ही कविताएं बेहतरीन। कवि और कविता की व्‍याख्‍या करती हुई। ये जीवन अनुभव राजेश का होकर भी बहुतों का है, जो सही मायने में कविता से जुड़े हुए हैं।’  

आशीष बोले, ‘अगर कविताओं का कोई निहितार्थ है तो उसकी गूढता मुझे समझ नहीं आयी! (इसमें कौन सा नयी बात है?!!!!) लेकिन सतही तौर पे अपने लेवल के हिसाब से देखूं तो बेहद सीधे और सरल शब्दों में आपने अपनी बात कही है....सही है कवि भी कविता है....। 

 नीरज गोस्‍वामी  ने कहा, ‘राजेश जी आपकी दोनों रचनाएँ अप्रतिम हैं...प्रशंसा के शब्दों से परे हैं...सच्ची और सार्थक हैं...।’ 
 
दिव्‍या ने बात आगे बढ़ाई, ‘सुंदर कविताएं।’ कहकर। 

मनोज कुमार ने अपनी बात इस तरह कही, ‘इस कविता के माध्‍यम से कवि ने बौद्धिक जगत की दशा-दिशा पर पैना कटाक्ष किया है।’  
प्रदीप कांत ने कहा, ‘ कवि सरल नहीं जटिल कविता है। कवि पर अपनी तरह से विचार करती कविताएं।’  

मोनिका शर्मा ने कहा, ‘दोनों रचनाएं अच्छी लगी.... उत्साहीजी की कविताएं भावप्रधान होती हैं।’ 

शाहिद मिर्जा ‘शाहिद’ ने फरमाया, ‘कवि और कविता विषय पर बहुत ही शानदार कविताएं पढ़ने को मिलीं।’ 
  
सम्‍वेदना के स्‍वर आलोक चैतन्‍य  और सलिल ने अपनी बात कुछ इस तरह रखी,  ‘उत्‍साही जी की कविताएं सारगर्भित होती हैं और हृदय से निकलती है... और विशेष कर तब जब कविता ही कवि और कविता के रिश्तों को रेखांकित करती हो. दूसरी कविता पहले... एक सच्चा बयान..वंदे मातरम एक कविता ही तो है, मगर जब आनंद मठ में यह गीत गूंजता है तब पता चलता है कि यह एक गीत नहीं स्वतंत्रता का हथियार है... किंतु कविता मात्र छंदों और शब्दों में रची कविता नहीं यह एक सम्पूर्ण परिचय है एक कवि का... उत्साही जी, एकदम खरा बयान.
दूसरी कविता में आपने कवि को कविता बताया है और उसके हर रूप को दिखाया है, लेकिन अंतिम पंक्ति की आवश्यकता नहीं थी.. यह कवि को न पढ पाने वाले या पढ़ सकने वाले पाठकों या गुणग्राही जन पर प्रश्न चिह्न लगाती है. कवि का संदेश यहीं समाप्त हो जाता है कि पढो कि कवि भी एक कविता है. इसमें यह भाव स्पष्ट है, उजागर है कि जो कवि को एक कविता की तरह नहीं पढता और सिर्फ कविता को सम्पूर्ण मानता है, वह अनपढ है, उसे कविता का ज्ञान नहीं, एक अर्द्धसत्य है उसका ज्ञान।’  


उड़नतश्‍तरी पर सवार समीर जी ने कहा,’दोनों ही रचनाएँ अद्भुत हैं..आनन्द आ गया बांचकर।‘  

राजकुमार सोनी जी का बिगुल बहुत दिनों बाद मेरी रचनाओं पर बजा। उन्‍होंने कहा, ‘राजेश उत्साही जी हमेशा ही बेहतर लिखते हैं यहां प्रस्तुत उनकी दो रचनाएं इस बात का सबूत भी है.मैं उनसे हमेशा कुछ सीखता हूं।’ 
 
कोरल की तृप्ति ने कहा, ‘दोनों रचनाएं बहुत सुन्दर है।’ 

 कविता रावत ने कहा, ‘ कहां है उसकी कविता ?...सही सवाल! ...उत्साही जी की काव्यधर्मिता के अनूठी प्रस्तुति के लिए आखर कलश को हार्दिक धन्यवाद और उत्साही जी को सारगर्भित रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।’ 

वंदना बोलीं,’ कवि भी एक कविता है……………क्या भाव उँडेले हैं जो रगों मे लहू बन कर दौडे वो कविता ही तो है कवि और कविता एक दूसरे से जुदा कब हैं। कविता बिना कवि……………फिर तो उसका अस्तित्व ही नहीं है……………।जैसे बिना डोर के पतंग्……………भावों का खूबसूरत समन्वय किया है।’  

मुकेश कुमार बोले,’ कवि स्‍वयं में कविता है। कवि क्‍यों भैया,हर किसी की जिन्‍दगी खुद में कविता है।’  

प्रतुल जी ने अपनी बात कविता में ही कही,
अब तक 
कवि को 
कविता ने 
दिलायी थी प्रतिष्ठा. 
आपकी सदाशयता है कि 
आप पुरजोर अपील कर 
करते हैं पाठको के मन के भीतर 
कवियों की सुदर प्राण-प्रतिष्ठा. 

आपके 
स्वागत के 
उठे हाथों को 
सम्मान देते हुए 
मेरी दृष्टि की 
आपके चरणों की ओर 
हो रही है निष्ठा
.

संजीव गौतम ने कहा, ‘राजेश जी की दोनों कविताएं अच्छी हैं। गहरे अर्थ लिए हुए हैं। पहली कविता देखने में साधारण लेकिन अपने में बहुत कुछ समाये हुए है। जो लोग लेखन में कुछ और, निजी जीवन में कुछ और हैं उन पर व्यंग्य भी है। कवि कर्म की स्पष्‍ट व्याख्या है। कविता का सृजन वास्तव में तुकबन्दी नहीं है। एक-एक ब्द को बरतना है, उसे जीना है।’ 


बबली बोलीं,’ ‘बहुत सुन्दर, भावपूर्ण और शानदार रचनाए ! बेहतरीन प्रस्तुति!’ 

आरती ने कहा, Very nice you have pover to make readers।’

राजीव ने अपनी बात कुछ इस तरह कही,
"जब तक वह पल नहीं जाती
(
बेशक वह कवि की संतान है)
तब तक
छटपटाती है
कवि के अंतस में
छलकती है चेहरे पर
झांकती है आंखों से" 


इस मर्म को एक कवि से बेहतर बस एक मां ही समझ सकती है .आपने तो सारे कवियों की आन्तरिकता को ही उजागर कर दिया बड़े भैया। संतुलित गतिशीलता और सुंदर शिल्प ने इसे अत्यंत सुग्राह्य बना दिया है.इससे आगे कहने की शायद क्षमता नहीं है अभी मुझमें.इसका सामान्यीकरण इसका मजबूत पक्ष है ,ऐसा मुझे लगाता है।’

निर्मल गुप्‍त ने अपनी निराशा जाहिर की,‘ उत्साही जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार से हम कुछ बेहतर कविता की आस लगाये थे -पर यह दोनों कविताएँ तो एकदम साधारण हैं।  

दिगम्‍बर नासवा बोले, ‘वाह ... बहुत ही लाजवाब ... कवि के अंतर्मन को , उसकी आत्मा को शब्दों में लिखना आसान नही होता पर आपने कर दिखाया ..... कविता सच में छटपटाती है कवि के मन में .... जब तक शब्दों को उचित भाव नही मिलते कवि कविता को अंदर ही रखता है और छटपटाता रहता है .... दोनो बहुत ही सशक्त  रचनाएं हैं ....। 

संजय ग्रोवर ने कहा, ‘राजेश उत्‍साही said... ' "आशीष भाई सही कहा आपने नया कुछ भी नहीं है। बस मुझे लगा कि मैंने जानी पहचानी बात को नए तरह से कहा है। आखिर हम कवि लोग और करते क्‍या हैं? वैसे कविता आपको जितनी समझ आई, उतनी ही है।’(यह मैंने आशीष की टिप्‍पणी के जवाब में कहा था।)
इस मायने में अच्छी कविताएं हैं, पढ़ने को मजबूर करती हैं।

बोले तो बिन्‍दास के रोहित जी बोले, ‘हमें सरल शब्दों में कविता के अर्थ समझ में आए..हमारे लिए यही कविता है। कविता जो भाव है .भाव का शब्द रूप है।’

देवी नागरानी ने कहा, ‘सच शब्‍दों में साकार हुआ है और मैं चुप।‘ 

शेखर सुमन,राकेश कौशिक और हास्‍य फुहार को भी कविताएं अच्‍छी लगीं। 

अब आप क्‍या कहते हैं?


LinkWithin

Related Posts with Thumbnails