जब मैंने लिखना शुरू किया तो इस तरह की कविताएं भी लिखीं। तब यह बताने वाला कोई नहीं होता था, लिखी गई कविता का मजबूत पक्ष कौन-सा है और कमजोर कौन-सा। यह कविता मैंने मशहूर लघु पत्रिका ‘पहल’ में प्रकाशन के लिए भेजी,जिसे जाने-माने कथाकार ज्ञानरंजन संपादित करते थे। कविता उनकी इस टिप्पणी के साथ वापस लौट आई कि फिलहाल इस साल प्रकाशित होने वाले अंकों के लिए उनके पास पर्याप्त रचनाएं हैं, इसलिए इसका उपयोग नहीं हो पाएगा। पहल के साल भर में चार अंक निकलते थे। मैंने मान लिया कि मेरी कविता पहल में छपने योग्य है। मैंने साल भर इंतजार किया और फिर ज्ञानरंजन जी को उनकी बात याद दिलाते हुए अपनी यह कविता भेज दी। इस बार उन्होंने कविता के मजबूत और कमजोर पक्ष बताते हुए कविता को लौटा दिया। इस पर मेरे और उनके बीच छह माह तक लम्बा पत्र-संवाद हुआ। मेरी शिकायत यही थी कि यह बात वे साल भर पहले भी कह सकते थे। अगर मैं दुबारा कविता नहीं भेजता तो मुझे अपनी कविता के बारे में उनकी महत्वपूर्ण राय पता ही नहीं चलती। उनकी राय और मेरे तर्क क्या थे यह सब पत्रों में मेरे पास सुरक्षित है। कभी मौका हुआ तो उसकी चर्चा करुंगा।
फिलहाल आप क्या कहते हैं-
वह
पत्थर तौडती औरत
उस ठेकेदार का
सिर क्यों नहीं फोड़ देती
जो देखता है उसे गिरी हुई नजरों से
पूछना चाहता हूं
अचानक मेरे पूछने से पहले ही
उसकी आंखें बोल उठती हैं
बेटा
आखिर तुम किसलिए हो
अचकचाकर
मैं उसे देखता हूं
मुझे वह औरत
अपनी मां नजर आने लगती है
और मैं एक बेटे
का कर्त्तव्य निभाने के लिए
कृत संकल्प हो उठता हूं
अपने सीने में
ताजी लम्बी सांस भरकर,
आंखों में खून का
सागर लहराते हुए
अपने मुंह का सारा थूक इकट्ठा कर
बंधी मुट्ठियों को सख्त करते हुए
दांतों को एक-दूसरे में
धंसाने की कोशिश करता हुआ
सिगरेट का धुआं उड़ा रहे
उस ठेकेदार की ओर बढ़ता हूं
पर शायद,
उसकी घाघ दृष्टि
मेरा अभिप्राय जान जाती है
मेरा हाथ
उसकी गर्दन तक पहुंचे
उससे पहले ही
चार सण्ड, मुसण्ड गुण्डे
मुझे उठाकर आकाश में
उछाल देते हैं
सारी पृथ्वी
घूमने लगती है
वह औरत
मुझे भारत मां नजर आने लगती है
जो आजादी के
तीन दशक बाद भी
अव्यवस्था, अराजकता, भ्रष्टाचार ,
अवसरवाद, सत्ता और स्वार्थ के ठेकेदारों के चुंगल से
मुक्त नहीं हो पाई है
और अपनी बेडि़यों
को तोड़ने का असफल प्रयास करते हुए
अपने बेटों से उनका
कर्त्तव्य पूछती है
मुझ जैसे उसके कई बेटे
अपने कर्त्तव्य को निभाने के लिए
आगे बढ़ते हैं
पर इन ठेकेदारों तक
पहुंचने से पहले ही
उन्हें आकाश में उछाल दिया जाता है
हमेशा के लिए
हमेशा हमेशा के लिए।
0 राजेश उत्साही
(सागर मप्र से निकलने वाले एक साप्ताहिक अखबार ‘गौर दर्शन’ के 1983 के गणतंत्र विशेषांक में प्रकाशित)