सोमवार, 28 जून 2010

याद : दो नए बिम्‍ब

(एक)
याद की
हिचकियां
आजकल गले में नहीं
मोबाइल फोन में आती हैं
एसएमएस के बहाने ।

(दो)
याद 
आजकल
धड़कन से महसूस नहीं होती
देर रात गए
उंगलियां यूं ही मोबाइल पर
चली जाती हैं
और याद
मिस काल बन जाती है।
** राजेश उत्‍साही

शुक्रवार, 11 जून 2010

प्रेम के कुछ क्षण

जैसे
एक गिलहरी
अपने भोजन के बहाने
छुपाकर भूल जाती है तमाम बीज मिट्टी में
ताकि कड़े दिनों में आएं काम

मैं भूल
जाना चाहता हूं बोकर
प्रेम के कुछ क्षण
यहां-वहां

ताकि
उदास होने लगूं
जब इस नश्वर दुनिया से
तब
जी सकूं
उनके लिए।
0 राजेश उत्‍साही
(जून,2010 बंगलौर)

रविवार, 6 जून 2010

इश्‍क बहुत गहरा था


हां, मैं झील के पानी सा ठहरा था,
क‍रता क्‍या सख्‍त बहुत पहरा था।

तोड़ भी सकता था उस बंधन को,
पर पार पे बसा गांव तो मेरा था।

चमन से उकता कर चले आए हम,
पर इंतजार में भी कहां सहरा था।

चीख चीख कर आवाज गवां बैठे हैं ,
कानों वाला, आंखों से भी बहरा था।

सब कहते हैं चढ़ती नदी में उतरे क्‍यों,
हम कहते हैं कि इश्‍क बहुत गहरा था।
               **राजेश उत्‍साही
(मई,2010 बंगलौर)

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