सोमवार, 30 अप्रैल 2012

हम तो हैं चपरासी


                        फोटो : राजेश उत्‍साही 
हम तो हैं चपरासी
किसे चिंता जरा-सी

गरमी,ठंडी या बरसात
बच्‍चा होने वाला हो घर में
या हो और कोई खास बात
नहीं मोहलत जरा-सी
हम तो हैं चपरासी
किसे चिंता जरा-सी।

टाइपराइटर के बिन स्‍याही
के फीते से हम घिसते
बिना ग्रीस के पंखे से
हम हरदम हैं झलते
न चैन,न ही फुरसत जरा-सी
हम तो हैं चपरासी
किसे चिंता जरा-सी।

बीते कब दिवाली की छुट्टी
कब आए मकिया की भुट्टी
अपनी तो कटती है दफ्तर और
साहब के घर में पूरी बारहमासी
हम तो हैं चपरासी
किसे चिंता जरा-सी।
0 राजेश उत्‍साही  

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

पेड़ बनाम आदमी


                                                                       फोटो : राजेश उत्‍साही 

कमरे के कैलेंडर
कमरे की हवा के सहयोग से
करते हैं आवाज,बतियाते हैं जोर जोर से
कहते हैं
इस आदमी को कितनी बार समझाया
पर इसकी समझ में नहीं आया

अरे
इससे कहो
बंद करले दरवाजे, खिड़कियां
सिर्फ अपने तक रहे सीमित
न सुने,
न सुनाए बात-बात पर टि‍प्‍पणियां

मैं
समेटकर ध्‍यान अपने में सीमित
करने लगता हूं
उठकर कमरे के दरवाजे, खिड़कियां
बंद करने लगता हूं

तभी कमरे के बाहर
दूर-दूर तक फैले पेड़
बाहर की हवा के सहयोग से
करते हैं शोर, जोर जोर से

अरे ओ आदमी
तुम हम से यूं नजर न फेरो बेगानों की तरह
कुछ हमारे बारे में भी सोचो सच्‍चे इंसानों की तरह

तुम सब यूं अपने में सीमित हो जाओगे
यूं अपने अपने दायरों में बंद हो जाओगे
फिर हमारा क्‍या अस्तित्‍व होगा
फिर हमारा क्‍या महत्‍व होगा।
                         0 राजेश उत्‍साही 
मेरे ब्‍लाग यायावरी पर दिल्‍ली में एक दिन पोस्‍ट पर आपका स्‍वागत है। 

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

लौटी है कविता


मुद्दत 
बाद लौटी है कविता
मुझमें
या कि मैं कविता में
कविता मेरे सामने है
आइने की मानिंद

कविता लिखे,
हुए उससे रूबरू
सचमुच गुजर गए अनेक दिन
हजार पलकरोड़ छिन

कविता
लौटी है
कि जैसे लकवा मार गई जुबान में
प्रान लौटे हों
लौटी है कविता
कि जैसे सुन्‍न पड़ गए हाथ में
भान लौटे हों

कविता
लौटी है कुछ इस तरह 
कि जैसे वर्षों पहले रखकर
डायरी में सलीके से अपने चंद शब्‍द
भूल गया था मैं

लौटी है
कविता
कि जैसे गहरी नींद में जागते को 
झझकोर दिया हो 
किसी ने

जो भी हो
मुद्दत या कि मुद्दतों बाद
लौटी है कविता
मुझमें
या कि मैं कविता में ।
0 राजेश उत्‍साही 

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