पढ़कर
मरने की मेरी ख्वाहिश
परेशान हैं सब
तसल्ली रखें
इतनी जल्दी नहीं मरूंगा मैं
रहा था मैं
जिन्दा
तब भी, जब था कुल जमा
इक्कीस दिन का
अपने मां-बाप की तीसरी संतान
पहली दो इतने दिन भी पूरी नहीं कर पाई थीं
इस नश्वर संसार में
बकौल नानी
जो अब नहीं हैं
कहने को वे 1995 तक तो थीं
कहने को वे 1995 तक तो थीं
उन्हें गुजरे भी जमाना गुजर गया
दिसम्बर 1958 की एक सर्द रात को
मां के सीने से चिपका निद्रालीन था
पत्थर से बने घुड़सालनुमा रेल्वे क्वार्टर में
पिता पास ही बने स्टेशन में
बतौर स्टेशन मास्टर रात बारह से आठ की ड्यूटी बजा रहे थे
क्वार्टर अब भी हैं
मिसरोद या मिसरोड रेल्वे स्टेशन के किनारे
भोपाल से जाते हुए इटारसी की तरफ पहला स्टेशन
जब भी गुजरता हूं यहां से
बदन में सुरसुरी सी दौड़ जाती है क्वार्टर देखकर
तो क्वार्टर में थी
निझाती हुई अंगीठी,
जिसके कोयलों में जान बाकी थी
कोयले किसी पैसेंजर गाड़ी के भाप इंजन ड्रायवर से
सर्दी और छोटे बच्चे का वास्ता देकर हासिल किए गए थे
कोयले बदल रहे थे क्वार्टर को
कार्बनडायआक्साइड या
ऐसी ही किसी दमघौंटू गैस के चैम्बर में
न जाने किस क्षण
घुटन महसूस की मां ने
और उठाकर मुझे बदहवास भागीं बाहर की ओर
गिरीं चक्कर खाकर आंगन में धड़ाम से
चीखकर रोया था मैं
और घबराकर मां
रात के सन्नाटे में सुनकर हमारा विलाप
पिता जी भागे चले आए थे
और तभी कोई गाड़ी धडधड़ाती हुई गुजर गई थी
स्टेशन पर बिना रुके
मैं
सुरक्षित था
तो तसल्ली रखें
इतनी जल्दी (?)
नहीं मरूंगा मैं ।
0 राजेश उत्साही