शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

वर्मा मैडम बनाम बड़ी बहू ।। नीमा के बहाने : तीन

नीमा के बहाने का तीसरा भाग प्रस्‍तुत है। हो सकता है यह आपको एक सपाट बयानी लगे। कविता कम कहानी ज्‍यादा लगे। सच तो यही है कि कहानी को ही कविता में कहने की कोशिश कर रहा हूं। नए पाठक कृपया इस कविता का संदर्भ समझने के लिए कविता के पहले और दूसरे भाग भी पढ़ें तो बेहतर रहेगा।


नीमा
मैंने
तुमने 
हमने
शुरू किया था
नया जीवन

इसमें
नया
उतना ही था
जितना होता है सबके लिए


तुम 
हिन्‍दी साहित्‍य
की प्राध्‍यापिका
सेंधवा के छोरा-छोरियों की वर्मा मैडम
आईं थीं होशंगाबाद पटेल साहब की बहू
बड़ी बहू बनकर
पूरी रेल्‍वे कालोनी में थी चर्चा
पटेल साहब की बहू कॉलेज में पढ़ाती है

मैं खुश था
अम्‍मां खुश थीं
बाबूजी खुश थे
सब खुश थे कि तुम पढ़ा रही हो
कॉलेज में पढ़ा रही हो

दुख था
तो केवल यह कि
बहुत दूर था सेंधवा
नर्मदा
होशंगाबाद को भिगोती और  
तीन सौ किलोमीटर का फासला पार करके
सेंधवा के आसपास खलघाट
को छूती

तुम जानती हो कि
कितनी कोशिशें हुई थीं
तुम्‍हारा तबादला
होशंगाबाद या कहीं आसपास हो जाए
बाबूजी शिक्षा मंत्री के दरवाजे तक हो आए थे 
पर तदर्थ नियुक्ति के कारण
यह संभव नहीं हो सका था

नीमा
सच ये भी है कि कुछ
मध्‍यमवर्गीय आदर्श थे जिनके
तले मैं भी था और तुम भी

यह भी यर्थाथ था
मुझ से छोटे तीन और भाई बहन थे 
घर में
दादी और अम्‍मां बाबूजी भी थे
अम्‍मां ही थीं जिन्‍होंने सारा घर संभाल रखा था
मदद याकि हाथ बंटाने के लिए
स्‍वाभाविक रूप से जो आ सकता था
वह बडे़ बेटे की बहू
मेरी पत्‍नी
तुम थीं

तुमने भी देखा
महसूस किया
भावनात्‍मक, नैतिक और कुछ तथाकथित सामाजिक दबाव
तुमने यह फैसला किया, नहीं
शायद
हम दोनों ने यह फैसला किया
तुम केवल पटेल साहब कि बड़ी बहू बनी रहो

याद है
हम दोनों बसंत की सत्‍ताईसवीं नाव में सवार थे
लगता था जैसे
मिलकर दोनों ने पतवार नहीं संभाली तो
पता नहीं कब किनारें लगें

शायद
हमारे फैसले को पकाने में
विछोह के नमक का भी हाथ था

अंतत:
त्‍यागपत्र लिखकर
तुम चलीं आईं थीं
तुम आ गई थीं
बड़ी बहू बनकर

तुमने
अपनी ओर से यह प्रयत्‍न
किया था
निभा पाओ दायित्‍व अपना
पर कहीं कुछ ऐसा था जो आड़े आता रहा

इस बीच
तुम्‍हारे छोटे भाई ने सूचना दी कि
अभी तक त्‍यागपत्र स्‍वीकृत नहीं हुआ है
एक बार फिर
सब कुछ सोचा गया
हमने तय किया कि
तुम वापस जाकर
सेंधवा के छोरा-छोरियों की वर्मा मैडम हो जाओ
तैयारी हो गई थी
छोटा भाई तुम्‍हें
लेने आया था

लेकिन
तुम्‍हारे और अम्‍मां के बीच
जाने क्‍या बातचीत हुई कि
तुमने अपना फैसला
अचानक बदल दिया

नीमा
तुम शायद
नहीं जानतीं
कितने दिन और कितनी रातों तक  
मैंने महसूस किया जैसे
मैं गर्म तवे पर बार बार गिराई जारी कोई बूंद हूं
सच कहूं तो आज तक
मैं उस अपराध बोध से मुक्‍त नहीं हो पाया हूं

शायद
तुमने भी मुझे
अब तक
माफ नहीं किया है न!
0  राजेश उत्‍साही
(कविता अभी और भी है.....)

शनिवार, 17 जुलाई 2010

रानी लक्ष्‍मीबाई ।। नीमा के बहाने : दो


दोस्तो मेरी जीवनसंगिनी पर केन्द्रित कविता का दूसरा भाग प्रस्तुत है।कविता को अच्‍छी तरह आत्‍मसात करने के लिए नीमा के बहाने: एक  भी पढ़ें तो बेहतर रहेगा। 


नीमा
यानी निर्मला के आत्‍मज
कभी उत्‍तरप्रदेश के बीहड़ों से
निकलकर
महाराष्‍ट्र और गुजरात की सीमा से सटे मप्र के
पश्चिम निमाड़ की उपजाऊ जमीन
में आ बसे थे
परमार राजाओं के गढ़ सेंधव यानी
सेंधवा में
किले के नीचे

सेंधवा
रहा है मशहूर
अपनी रुई की गरमाहट के लिए
आज का आगरा बंबई मार्ग यानी
राष्‍ट्रीय राजमार्ग क्रमांक तीन इसके बीच से गुजरता है
यहीं 1959 के साल की पहली तारीख को
नीमा ने पहली किलकारी भरी

जीन में फिटर हुआ करते थे पिता
अस्‍सी साल की पकी उम्र में
उन्‍होंने इस दुनिया से ली विदा 
उनके जाते ही
जैसे परिवार बिखर गया
घर का सुख जाने किधर गया 

तीन भाइयों की दो बहनों में से एक
छोटे भाई से बड़ी लेकिन सबकी लाड़ली बहन
नीमा अभी छोटी ही थी
बड़े भाई अपने परिवारों में व्‍यस्‍त हो गए
 बहनें,छोटा भाई और मां जैसे उनके लिए अस्‍त हो गए

बचपन
मुफलिसी का खिलौना था 
मुफलिसी ही पालना था मुफलिसी ही बिछौना था
पिता का बनाया कच्‍चा घर और खुद्दारी ही गहना था
नन्‍हीं और नाजुक उंगलियां फूलों से जूझती थीं 
और खेल खेल में हीं उन्‍हें माला में गूंथती थीं
माला जो मंदिरों में जाती थी 
समय के बायस्‍कोप ने ऐसे मंजर भी दिखाए
गिरवी रखने को न जेवर बचे थे, न बरतन  
रोटी के लिए तवे पर रखे आटे को बेच आए
परीक्षा की फीस जो चुकानी थी 
मां ने किया था तय
बच्‍चों की पढ़ाई नहीं छुड़वानी थी

घर से स्‍कूल जाती-आती
हुई यह लड़की
रास्‍ते में कबीट के पेड़ से यह सब बतयाती
अपना सुख-दुख सुनाती
पेड़ सुनता
गुनता और जैसे कहता
बिटिया जीवन मेरी तरह है कंटीला
मेरी पत्तियों की तरह खट्टा ,मेरे फल की तरह कठोर
लेकिन अंदर से रसीला
 इस दुनिया में ही है तेरी ठौर  

समय बीतता गया
मुफलिसी के खिलौने टूटते गए   
जिंदगी में यकीन जीतते गए

सेंधवा के
मोती बाग मोहल्‍ले की
दगड़ी बाई प्राथमिक कन्‍या शाला की य‍ह कन्‍या
लड़कियों से ज्‍यादा लड़कों के साथ नजर आती
कंचे चटकाती  
गिल्लियों को दूर दूर तक पहुंचाती
मोहल्‍ले के घरों के कांच तड़काती
पर लड़की थी कि बाज नहीं आती

मिडिल स्‍कूल में
नाले के पार लड़के-लड़कियों के साथ पढ़ने जाती
और जब कोई बदतमीजी पर आता 
एक ही धक्‍के में सीधा खानदेश पुल से नाले में जाता
लड़के थे कि खिसयाते
और रानी लक्ष्‍मीबाई कहकर चिढ़ाते

सेंधवा महाविद्यालय
की दीवारें और उन पर लिखी इबारत
इस बात की देती हैं गवाही 
कि नीमा ने यहां अपनी बात मनवाई 
महाविद्यालय की चौखट में
छात्रा के रूप में कदम रखा
छात्रसंघ की अध्यक्षा का स्‍वाद चख्‍खा,
खो खो और कबड्डी खेली,
फर्राटा दौड़ लगाई और प्रतिद्वंदिता झेली
हिन्‍दी साहित्‍य की स्‍नातकोत्‍तर कक्षा में पढ़ा 
और फिर पांच साल पढ़ाया
परिवार से ज्‍यादा शायद अपना ही मान बढ़ाया


नीमा
आम आदमी की भाषा के
कवि सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना की कविताओं में प्रयोगवाद 
पर शोध की तैयारी में जुटी थीं
पर वक्‍त ने कुछ इस तरह करवट ली 
कि वे दिल के हाथों लुटी थीं
सब कुछ तज के
मुझ जैसे आम आदमी की जिन्‍दगी के
वादों और विवादों की साक्षी बन गईं

नीमा के लिए
मैं वो आम आदमी था
जो उनके अलावा किसी और की
कसौटी पर खरा नहीं उतरता था
हां, मां ने
नीमा की मां ने कहा था
तुझे पसंद है तो मुझे क्‍या
तेरी खुशी में मेरी खुशी है

नीमा
ससुराल में बड़ी बहू बनकर
परिवार संभालने के
आदर्श की सनातन रंगबिरंगी झालरों
के बीच खो गईं 
सपनों का कैनवास जो सज रहा था 
उसे वक्‍त की लहर धो गई

गिनाने को कारण और देने को तर्क बहुत सारे हैं
पर हकीकत यही है कि मन के आगे कुछ निर्बलताएं उनकी रहीं
कुछ फरमान हमारे हैं

नर्मदा के किनारे  
होशंगाबाद के सेठानी घाट 
पर मधुमास में
 निर्मल नीर में उतराते चांद को निहारते हुए 
उजियारी रात में
मैंने पूछा था,
‘नीमा तुम्‍हारी जिन्‍दगी का लक्ष्‍य क्‍या है?’
‘तुम मिल गए तो लक्ष्‍य भी मिल जाएगा
साथ साथ हम रहें, यह जाता हुआ समय लौटकर न आएगा।‘
इसका जवाब  
निर्मल चांद को चूम कर ही दिया जा सकता था ।

नीमा
छोटे भाई की भाभी
और बहनों के लिए भाभी से ज्‍यादा
सहेली बन गईं
जल्‍द ही
हल्‍दी का रंग
और रसोई की प्‍याज की गंध उनमें
और वे गृहस्‍थी में रम गईं ।
 0      राजेश उत्‍साही 

(कविता अभी और भी है....इंतजार करें .)

सोमवार, 5 जुलाई 2010

निर्मला,नीमा,नीमू ।। नीमा के बहाने : एक


अपनी जीवनसंग‍िनी पर केन्द्रित यह कविता में पिछले साल भर से लिख रहा हूं। बीत गई 23 जून को हमारे वैवाहिक जीवन की रजत जयंती थी। सोचा था इस अवसर पर उन्‍हें इस कविता के माध्‍यम से शुभकामनाएं दूंगा। पर कविता पूरी नहीं हो सकी। अभी भी नहीं है। सोचता हूं कि जितनी है उसे यहां दूंगा तो उसे पूरी करने का नैतिक और भावनात्‍मक दबाव मेरे कवि पर बनेगा। तो जहां तक अभी पहुंच पाया हूं, उसे आप भी पढ़ें। 

मेरी
जीवनसंगिनी
यानी कि पत्‍नी का नाम
निर्मला है
यह असली नाम है
बदला हुआ या काल्‍पनिक नहीं
पर हां प्‍यार से
या समझ लीजिए सुविधा से
मैं नीमा कहकर बुलाता हूं।

समस्‍या
निर्मला कहने में भी नहीं
पर पुकारते हुए कुछ ज्‍यादा ही
समय लगता है
और अब तो उन्‍हें भी
मुझसे नीमा सुनने की कुछ ऐसी आदत
सी हो गई है
कि मेरे मुंह से निर्मला
सुनत ही उन्‍हें लगता है कि कुछ गड़बड़ है।

मुझे याद है
जब नई नई शादी हुई थी
मेरी मौसेरी बहन
जिसे हम सरू पुकारते हैं
अपनी नई-नवेली भाभी को
उस जमाने के एक मशहूर वाशिंग पावडर
के नाम से जोड़कर
चिढ़ाती थी।

याद मुझे यह भी है कि
मेरे एक साहित्यिक मित्र
ब्रजेश परसाई ने
-जो अब नहीं हैं-
बधाई देते हुए कहा था
अब आप राजेश जी को
निर्मल वर्मा बना दें
संयोग की बात यह भी
कि निर्मला का सरनेम भी वर्मा ही है
और अब भी है।

जानने वाले परेशान हो जाते हैं
राजेश उत्‍साही,निर्मला वर्मा और बच्‍चों के नाम
के साथ पटेल सरनेम देखकर।

यह अलग बात है कि
वे अपना परिचय श्रीमती निर्मला राजेश
कहकर देती हैं
जो मुझे कभी अच्‍छा नहीं लगता
मैं हर औपचारिक जगह उनका परिचय
श्रीमती निर्मला वर्मा कहकर ही देता हूं।

पर मेरे कहने से क्‍या होता है
आसपड़ोस वाले उन्‍हें
श्रीमती उत्‍साही के नाम से जानते हैं।

एक मजेदार बात यह भी कि
एक बार मैंने घर के बाहर
नेमप्‍लेट की तरह
एक स्‍लेट पर अपने नाम के साथ साथ
पत्‍नी और
बच्‍चों के नाम भी लिखकर
लटका दिए थे
लिखा था
राजेश नीमा
कबीर उत्‍सव
नतीजा यह कि
एक पड़ोसी नीमा को मेरा
सरनेम ही समझने लगे थे
वे मुझे नीमा जी कहकर ही
बुलाते थे
मैं और नीमा सुनसुनकर बस हंसते थे।

निर्मला यानी नीमा
अपने मायके में नीमू हैं
नीमू दीदी या फिर नीमू बुआ
और ससुराल में तो वे निर्मला ही ठहरीं
अब आपको
जो भी ठीक लगे
आप बुला सकते हैं
नीमा,निर्मला या फिर नीमू।

नाम का चयन
इसलिए भी जरूरी है कि
क्‍योंकि आगे की कविता इन्‍हीं के बारे में है
चलिए
मैं तो नीमा कहता रहा हूं
सो नीमा ही कहूंगा
एक बार फिर आपको याद दिला दूं
कि यह काल्‍पनिक या परिवर्तित नाम नहीं है
एकदम सोलह आने सच्‍चा और खरा है
                     **राजेश उत्‍साही 

(इस कविता का अगला भाग जल्‍द ही..)

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails