सोमवार, 4 जुलाई 2011

तीन : इतनी जल्‍दी नहीं मरूंगा मैं !


तय है 
मरूंगा एक दिन
पर इतनी जल्‍दी नहीं
तसल्‍ली रखें !

बच
गया था
मौत के आगोश में जाने से
सन् उन्‍नीस सौ सत्‍तर में
सीख रहा था जब
चलाना सायकिल

मई की
एक तपती दोपहरी में
सबलगढ़ की बीटीआई जाने वाली 
सुनसान सड़क पर
मेरे अलावा
केवल लू चल रही थी

सायकिल
पर सवार मैं
कभी दायां,कभी बायां पांव
पैडल तक पहुंचाने की कोशिश में
जूझ रहा था

डगमगाती
सायकिल बढ़ रही थी
पिघलते कोलतार की सड़क पर

तभी
लगभग मुझे
धकाती परे सड़क से
गुजर गई थी बस एक
आंधी की तरह मेरी बगल से

अचकचाकर
गिरा था सा‍यकिल सहित
चारों खाने चित्‍त मैं
पिछला पहिया
गुजरा था मुझसे
बस का
बस इंच भर की दूरी से

रूकी थी बस
उतरकर आया था कंडक्‍टर
खाईं थीं उससे
कुछ भद्दी गालियां और दो थप्‍पड़
बेवजह

पर
सलामत थे
मैं और मेरी सायकिल
तो तसल्‍ली रखें
इतनी जल्‍दी (?)
नहीं मरूंगा मैं !!

0 राजेश उत्‍साही

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