मेरी ये कविताएं 1982-83 के आसपास की हैं। तब मेरी योजना थी कि छोकरा शीर्षक से कुछ नहीं तो दस-बारह कविताएं लिखूंगा। पर बात तीन से आगे नहीं बढ़ी।
पर इन कविताओं से एक के बाद एक किस्से जुड़ते चले गए। मप्र साहित्य परिषद की एक पत्रिका है साक्षात्कार । 1982 में मेरी एक कविता नूर मोहम्मद और उसका घोड़ा उसमें प्रकाशित हुई थी। उन दिनों सोमदत्त संपादक थे। सोमदत्त जी ने कुछ सुझाव देते हुए कविता मुझे वापस भेजी और कहा कि अगर आप कविता का कुछ हिस्सा निकाल दें तो देखेंगे कि कविता में कितनी कसावट आ जाती है। सचमुच सोमदत्त जी ने मुझे एक नई दृष्टि दे दी थी। मैंने स्वयं कविता का संपादन किया और सोमदत्त जी को भेज दी। कविता साक्षात्कार में प्रकाशित हुई। साक्षात्कार के इसी अंक में हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य लेख भी था। बाएं पृष्ठ पर मेरी कविता थी और दाएं पृष्ठ से परसाई जी का लेख शुरू होता था। मेरे जैसे नौजवान लेखक के लिए यह भी एक उपलब्धि थी। बहरहाल मैंने उत्साहित होकर कुछ समय बाद अपनी दस-बारह कविताएं साक्षात्कार में प्रकाशन के लिए भेज दीं। बहुत दिनों तक उनका कोई जवाब नहीं आया। लगभग चार साल बाद 1987 में मुझे एक सूचना मिली। रायपुर में मप्र की युवा कविता समारोह आयोजित किया जा रहा है। आयोजन मप्र हिन्दी साहित्य परिषद कर रही है। चुने हुए युवा कवियों में मेरा नाम भी था। समारोह की अध्यक्षता त्रिलोचन जी कर रहे थे। जहां तक मुझे याद है हम सात या आठ कवियों को उसमें शिरकत करना थी। अपने अलावा तीन नाम मुझे याद हैं। एक नाम है आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्ताक्षर कुमार अंबुज का । दूसरा नाम जाने-माने व्यंग्यकार कैलाश मंडलेकर का और तीसरा नाम शायद मेरी ही तरह कहीं खो गए राजीव सभरवाल का। जो कविताएं मुझे इस समारोह में पढ़नी थीं, उनमें ये तीन भी शामिल थीं। अफसोस की बात यह है कि इस समारोह में मैं नहीं जा पाया। यह अफसोस मुझे अब तक है। समारोह बहुत सफल रहा था। मुझे लगता है इस समारोह में अगर मैं जा पाता तो शायद मेरे लेखन की दिशा ही कुछ और होती।
न जा पाने का कारण भी खास था। पहले समारोह मई में आयोजित था। मैंने जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। फिर किसी कारण से समारोह जुलाई तक के लिए स्थगित कर दिया गया। मैं चकमक के संपादन से जुड़ा था। जुलाई में कुछ स्थितियां ऐसी बनीं कि मुझे पत्नी निर्मला और एक साल के बेटे कबीर को लेकर भोपाल स्थानांतरित होना पड़ा। खैर फिर मैं सब कुछ भूलकर चकमक में रम गया।
सबसे पहले इन कविताओं को 1988 में चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के कैम्पस से निकलने वाली एक सायक्लोस्टाइल पत्रिकाहमकलम में जगह मिली। यह पत्रिका आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्ताक्षर लाल्टू और रूस्तमसिंह अपने साथियों के साथ मिलकर निकालते थे। रूस्तम भी सुपरिचित कवि, अनुवादक और संपादक हैं। एक जमाने में वे इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में थे। फिर कुछ समय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के संपादक रहे। आजकल एकलव्य के प्रकाशन कार्यक्रम में कार्यरत हैं।
हमकलम में इन कविताओं को इनके चरित्र के अनुरूप बने चित्रों के साथ छापा गया था। जो पाठक सायक्लोस्टाइल तकनॉलॉजी को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि स्टेंसिल पर चित्र बनाना कितने धैर्य का काम है। ये चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। कैरन आज जानी-मानी चित्रकार हैं। महिला आंदोलन से जुड़े तमाम साहित्य में उनके चित्र देखे जा सकते हैं। उनके चित्रों में पेन की रेखाओं और पेन से बने बिन्दुओं का गजब का मिश्रण होता है। पत्रिका के आवरण पर मेरी कविता का ही चित्र था। कविताएं भी टाइप नहीं की गई थीं, हस्तलिपि में थीं।
इन कविताओं का एक बहुत-ही अनोखा इस्तेमाल दुनु राय और उनके साथियों ने मप्र के शहडोल जिले के अनूपपुर कस्बे में किया था। वे उन दिनों वहां एक संस्था विदूषक कारखाना से जुड़े थे। असल में संस्था बनाने वालों में से दुनु राय स्वयं एक थे। दुनु राय इंजीनियर हैं, पर आज उनकी पहचान एक समाजशास्त्री, पर्यावरणविद् और शिक्षाशास्त्री,लेखक के रूप में कहीं अधिक है। उन्होंने मेरी इन कविताओं को टाट से बने बड़े साइनबोर्ड पर लिखवाकर अनूपपुर के एक चौराहे पर लटकाया था। यह भी 1988-89 की बात है।
1990 के आसपास हम लोगों ने चकमक का एक अंक बालश्रम पर निकाला। इस अंक में इनमें से दो कविताएं प्रकाशित की गईं थीं। चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। तो चलिए अब आप भी पढ़ लीजिए।
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'हमकलम' में इस कविता के लिए रेखांकन :कैरन हैडॉक |
छोकरा : एक