तुम लिखकर अपनी कहानी
स्मृति के पन्नों पर सो गए
उषा की मधुर बेला में
सपनों में तुम आते थे
निद्रा से जगने पर पाया
केश मेरे तुम सुलझाते थे
अब खुद ही उलझन हो गए
तुम लिखकर अपनी कहानी
स्मृति के पन्नों पर सो गए
ग्रीष्म की हो भरी दुपहरी
या वर्षा का रिमझिम दिन
या शरद का ठंडा मौसम
क्षण कब कटते थे तुम बिन
कट जाते हैं दिन कैसे हो गए
तुम लिखकर अपनी कहानी
स्मृति के पन्नों पर सो गए
हर संध्या पश्चिम में सूरज
नदिया में जब डूबता है
अपने नीड़ लौटता हर पंछी
बस पता तुम्हारा पूछता है
मीत न जाने किस दिशा गए
तुम लिखकर अपनी कहानी
स्मृति के पन्नों पर सो गए
मदमाती रातों का चांद
जब जब उगता है अब
शहद सा मीठा स्वर तुम्हारा
कानों में घुल उठता है तब
साज सभी लयहीन हो गए
तुम लिखकर अपनी कहानी
स्मृति के पन्नों पर सो गए
*राजेश उत्साही
(24 सितम्बर,1977, संपादित 11 अक्तूबर,2009)