शनिवार, 31 दिसंबर 2011

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !



  डॉलर के मुकाबले  
भाव हमें न मिले
सेंसेक्‍स में अपने
नहीं आया उछाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
ऊपर वाले से गिला
हाय यह क्‍या सिला
छप्‍पर टूटा  ही रहा
और जल गई पुआल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
चले थे  जहां से हम
वहीं  आ  थमे कदम
बीत गया यूं ही बरस
हुआ नहीं कोई कमाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
सपनों  को  थल नहीं
कश्‍ती को साहिल नहीं
उत्‍तरों  के हर द्वार पे
खड़े हैं  ज्‍वलंत सवाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
दुनिया  में शोर हुआ
चर्चा भी घनघोर हुआ
भ्रष्‍टासुर संग साथ हैं
2012  बिन लोकपाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
*
मजदूर  हैं  सब
मजबूर नहीं  रब
कुछ सोचे, समझे
हो न जाए बवाल

आओ फिर भी कहें, मुबारक नया साल !
                           *            
                                       0 राजेश उत्‍साही


बुधवार, 28 दिसंबर 2011

विचार भी एक पत्‍ता है




पेड़ों पर
नए पत्‍ते
तब तक नहीं आते
जब तक कि
पुराने झड़ नहीं जाते..

विचार
भी पत्‍ते हैं।
0 राजेश उत्‍साही

रविवार, 18 दिसंबर 2011

स्वेटर बनाम सपना

                                                                           फोटो : राजेश उत्‍साही 
बुनना
बेकार नहीं है चाहे
स्वेटर हो
या सपना
दोनों
जरूरत से उपजते हैं


बुने गए हों अगर
दिल और दिमाग से
तो बहुत काम आते हैं
जिंदगी भर


स्वेटर
सर्द वक्त के
लिए रखता है ऊष्‍मा
अपने में संजोकर


स्वेटर
किसी की
गर्म सांसों का अहसास-सा है


स्वेटर
रहता है
सालों साल साथ हमारे
अतीत की न जाने
कितनी यादों के एलबम की
तरह


होना
स्वेटर का
एक तसल्ली देता है
हरदम हमें


सपना या सपने
जब तक नहीं होते
साकार
रहते हैं साथ हमारे
भविष्य की घटनाओं की तरह


स्वेटर
की तरह सपनों की ऊष्मा
कम होती रहती है
धीरे-धीरे


स्वेटर
की तरह
सहेजते रहना
सपनों को
बनाता है जिंदगी को
कहीं अधिक आस्थावान
ऊष्मावान


इसलिए
बुनना
बेकार नहीं है
चाहे स्वेटर हो
या फिर सपना।

0 राजेश उत्‍साही 

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

अदि‍ति से



एकलव्‍य में कार्यरत दीपाली शुक्‍ला ने हाल ही में कैमरा खरीदा है। और वे पिछले कुछ दिनों से फोटोग्राफी में हाथ आजमा रही हैं। वे कविताएं और कहानियां लिखती रहीं हैं। मुझे यह देखकर सुखद आश्‍चर्य हो रहा है कि उनकी उतारी तस्‍वीरें भी किसी कविता से कम नहीं हैं। पिछले दिनों भोपाल के मानव संग्रहालय का भ्रमण करते हुए उन्‍होंने कुछ तस्‍वीरें उतारीं। इन्‍हें उन्‍होंने फेसबुक पर सबके साथ साझा किया है। इनमें से दो तस्‍वीरों ने मुझे बेहद रोमांचित किया है। पहली तस्‍वीर पर आधारित आत्‍मविश्‍वास कविता आप पढ़ चुके हैं। यह रही दूसरी तस्‍वीर और उस पर आधारित कविता। पहली कविता प्रकाशित होने पर अदिति ने अपनी टिप्‍पणी में लिखा कि तस्‍वीर की दो लड़कियों में से एक वह है। इस तस्‍वीर में केवल अदिति ही है। एक बार फिर शुक्रिया, दीपाली और अदिति । 

क्‍लांत नहीं हो तुम
नहीं हो तुम उदास
इंतजार नहीं है तुम्‍हें
उसका जिसे देखा नहीं है तुमने
सोचा नहीं है जिसके बारे में अब तक
मुझे पता है

तुम्‍हारे माथे पर
कोई सलवटें नहीं हैं
नहीं है तुम्‍हारी आंखों में खामोशी
झलक नहीं रहा है तुम्‍हारे चेहरे से तनाव
मुझे पता है

तुम्‍हारे कोमल पैरों के तलुए
अभी अछूते हैं छालों से
तुम्‍हारी ऐडि़यां परिचित नहीं है बिवाईयों से
मुझे पता है


मुझे तुमसे
बहुत उम्‍मीदें हैं
उम्‍मीदें इसलिए कि
तुम अंधेरी कोठरी से निकलकर
इस धवल लिबास में
पवित्रता की प्रतिनिधि लग रही हो
लग रही हो जैसे कोई हंसनी
आ बैठी हो पंख फैलाए
तुम्‍हारी दूधिया आंखों से
सुनहरे सपनों का उजास उमड़ा आ रहा है


मुझे तुमसे
बहुत उम्‍मीदें हैं
उम्‍मीदें इसलिए कि
कलाई में सजी
घड़ी परिचायक है
कि तुम समय की नब्‍ज पहचानना सीख रही हो
कलाई में बंधा और गले में पड़ा रंगीन धागा बता रहा है
कि अपनी संस्‍कृति और जीवन मूल्‍यों में आस्‍था है तुम्‍हारी
यूं गोबर लिपे फर्श पर आत्‍मीयता से बैठना
बताता है कि तुम जुड़ी हो जमीन से


मुझे तुमसे
बहुत उम्‍मीदें हैं
उम्‍मीदें हैं इसीलिए मैं बस इतना ही कहूंगा
समय के साथ चलना,
आस्‍था रखना, पर मत बनने देना उसे पैरों की बेड़ी
जमीन पर रहना , पर आकाश को मत करना अनदेखा
चाहे तुम समझना इसे
हिदायत, सलाह या कि चेतावनी मेरी
दुनिया को आसान समझना
पर उतनी नहीं, जितनी नजर आती है वह।

0 राजेश उत्‍साही
(6 दिसम्‍बर,2011)

 *******
एक अनुरोध : मेरी पिछली कविता 200 से अधिक लोगों ने पढ़ी। लेकिन प्रतिक्रिया केवल 25 से कुछ अधिक लोगों ने व्‍यक्‍त की।कुछ पाठक टिप्‍पणी बाक्‍स में प्रतिक्रिया करने से कतराते हैं या उन्‍हें मुश्किल लगता है। ऐसे सुधी पाठक अपनी प्रतिक्रिया ईमेल से भी भेज सकते हैं। मेरा ईमेल है utsahi@gmail.com । पाठकों की प्रतिक्रिया  महत्‍वपूर्ण है।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

आत्‍मविश्‍वास



एकलव्‍य में कार्यरत दीपाली शुक्‍ला ने हाल ही में कैमरा खरीदा है। और वे पिछले कुछ दिनों से फोटोग्राफी में हाथ आजमा रही हैं। वे कविताएं और कहानियां लिखती रहीं हैं। मुझे यह देखकर सुखद आश्‍चर्य हो रहा है कि उनकी उतारी तस्‍वीरें भी किसी कविता से कम नहीं हैं। पिछले दिनों भोपाल के मानव संग्रहालय का भ्रमण करते हुए उन्‍होंने कुछ तस्‍वीरें उतारीं। इन्‍हें उन्‍होंने फेसबुक पर सबके साथ साझा किया है। इनमें से दो तस्‍वीरों ने मुझे बेहद रोमांचित किया है। पहली आप ऊपर देख रहे हैं। इस तस्‍वीर को देखते हुए मेरे अंदर की कविता कुछ इस तरह बाहर आई। शुक्रिया दीपाली।

अब तक हमने
मिट्टी और गोबर से लिपी खिड़कियों से
झांककर बाहर
का खुला आसमान देखा था
देखा था अंधेरी कोठरियों की नन्‍हीं दरारों से
सूरज को उगते हुए

पर अभी अभी जाना है हमने कि
कितना अनोखा है
खुले आसमान के नीचे
खड़े होकर
देखना अपने अंतस को

हमारे होठों पर
यह मुस्‍कराहट  
उस आजादी की है
जो हमने पाई है अपने आपसे लड़कर

हमारी
इस आंकी बांकी नजर को
मत समझ लेना मासूमियत की अदा
बेशक लावण्‍य हममें कूट कूटकर भरा है
पर सहेजने के लिए उसे
हद दर्जे तक टूटना होता है अपने में
हर वर्जना से, हर दंभ से

और इस भ्रम में मत रहना कि
दमकता हुआ हमारा मुख
सूरज के प्रकाश से आलोकित है
चेहरे पर यह आभा
उस आत्‍मविश्‍वास की है
जिसे खोजा है हमने
अपने अंदर गहरे उतरकर ।

0 राजेश उत्‍साही
(29 नवम्‍बर,2011,बंगलौर)

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सब कुछ ठीक है...!


                                                                        फोटो: राजेश उत्‍साही
सब कुछ ठीक है
अच्‍छा खासा है हीमोग्‍लोबिन
इससे पर्याप्‍त मात्रा में मिलेगी ऑक्‍सीजन आपको
कोलेस्‍ट्राल नियंत्रण में है
और ब्‍लडप्रेशर भी
बस शुगर हो गई है 148 ‍
मेडीकल रिपोर्ट देखते हुए
मुझसे आधी उम्र के डॉक्‍टर ने कहा

पूछा नहीं उसने
बस दे दीं हिदायतें
नो स्‍मोकिंग
नो अल्‍कोहल

तिरेपन के हो गए हैं आप
जॉंगिंग मत करिए, हां पैदल जरूर चलिए
कम से कम चार किलोमीटर रोज
और हां मीठे से कर लीजिए तौबा
पर डायटिंग मना है आपके लिए
*

ऑक्‍सीजन....मिलेगी तब, जब होगी
अभी तो हम‍ जिंदा हैं जहरीली होती हवा पर
बीड़ी, सिगरेट और धुंए वाली किसी चीज का नशा
किया नहीं अभी तक हमने
पर डॉक्‍टर 
उस ‘स्‍मोक’ का क्‍या करें जो न चाहते हुए भी
जब तब चला आता है फेंफड़ों में

और...अल्‍कोहल तो केवल
बोतलों में नहीं मिलता डॉक्‍टर
आंखों में भी होता है और रूप में भी
उससे कैसे बच सकते हैं अपन

रही मीठे से तौबा की बात
तो कड़वे से अपना जन्‍म जन्‍म का नाता है
इसीलिए मीठा खाकर मीठा बोलने की जुगत में रहते आए हैं
अब उस पर भी प्रतिबंध !

डायटिंग ! यह किस चिडि़या का नाम है ?
हां भूखे रह जाने को आप डायटिंग कहते हैं
तो कह सकते हैं

पूरा जीवन ही यहां
जॉगिंग करते यानी भागते-दौड़ते बीता है
आप कहते हैं पैदल चला कीजिए
यह कैसे संभव है ?

कुछ भी तो ठीक नहीं है
डॉक्‍टर
पर आप कहते हैं
तो मान लेता हूं कि
सब कुछ तो ठीक है।

0 राजेश उत्‍साही
(16 नवम्‍बर,2011, बंगलौर)

शनिवार, 12 नवंबर 2011

जन्‍मदिन बंगलौर में


अपनी परछाईं के सामने : फोटो -राजेश उत्‍साही 

अब से
तीन बरस पहले तक
हर जन्‍मदिन पर
मां करती थीं माथे पर तिलक
उतारती थीं आरती
और बनाती थीं आटे में गुड़ घोलकर
गुलगुले

मां
वहीं हैं
मैं ही चला आया हूं
दूर उनसे

अब से
तीन बरस पहले तक
जन्‍मदिन पर
कभी बाबूजी स्‍वयं और
कभी-कभी उनका आर्शीवाद आता था
टेलीफोन की घंटी के साथ
'खुश रहो'

बाबूजी
अब नहीं हैं
मैं भी तो चला आया था
दूर उनसे

अब से
तीन बरस पहले तक
पिछले 23 बरसों से
पहली शुभकामना नीमा ही देती थीं
नीमा वहीं हैं
मैं भी वहीं हूं
भले ही चला आया हूं दूर उनसे

अब से
तीन बरस पहले तक
सुबह-सुबह गोलू-मोलू
आंख मलते-मलते
'हैप्‍पी बर्थडे पापा' कहते हुए लजाते थे

वे अब भेजते हैं
एसएमएस
क्‍योंकि नहीं हूं मैं पास उनके
चला आया हूं दूर

अब से तीन बरस पहले तक।
                0 राजेश उत्‍साही




बुधवार, 2 नवंबर 2011

प्रेम : नर्मदा किनारे

।।एक।।
मेरे तुम्‍हारे
बीच का फासला
जैसे सात समन्‍दर पार की दूरी

सात समन्‍दर पार जाना
शायद
अब भी हमारी
संस्‍कृति के खिलाफ है।

।।दो।।
चुप-चुप सी
ऊपर से
अंदर-अंदर ही आंदोलित
नर्मदा 
और दूर रेत पर
जलती आग
जैसे मेरा दिल हो।

।।तीन।।
उतर आया है
पूरनमासी का चांद
नर्मदा के नीर में
प्रतिबिम्‍ब में नजर
आ रहा है तुम्‍हारा चेहरा
ठीक वहीं,
जहां काला दाग है चांद में।
0 राजेश उत्‍साही 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

शुभ हो और केवल शुभ हो

                                                                                       राजेश उत्‍साही


दिया मिट्टी का जले
या तन का
रोशनी दोनों से होती है
दोनों ही तो मिट्टी हैं

तेल में भीगकर
जलती है बाती
सुलगकर वह अंधेरे में
राग उजाले का है गाती

मन की कंदील में  
खुशियों का तेल गलता है
रोशनी का झरना
आंखों से निकलता है

दिये की रोशनी
राह जग की दिखाती है
मन की आभा
इसे और जगमगाती है

सरलता से, सहजता से
जो यह जान लेते हैं
समय होता है जो सामने
वही सर्वोत्‍तम है मान लेते हैं


कहने की नहीं जरूरत
हो सबको मुबारक दिवाली
पकवान जो चाहे बनाएं
या पकाएं पुलाव ख्‍याली

शुभ हो और केवल शुभ हो
आपको यह दिवाली।
0 राजेश उत्‍साही  


रविवार, 9 अक्तूबर 2011

परिचय

                                                                          फोटो: राजेश उत्‍साही 

मैं
याद रहूंगा
एक अक्‍खड़,बदमिजाज
और एक हद तक बदतमीज
आदमी की मिसाल के तौर पर

याद रहूंगा
मैं
ऊंची और ककर्श आवाज में
बोलने वाला उजड्ड आदमी

कुछ बनावट ही है
और
कुछ बन जाता है फूलकर
या कि सूजा हुआ बैंगन चेहरा

ऐसे आदमी का
जब भी होगा जिक्र
नाम लिया जाएगा मेरा

धीरे-धीरे
कम होते काले-सफेद
खिचड़ी बाल और बेतरतीब मूंछों के लिए
याद किया जाऊंगा मैं

इन  
तथाकथित खासियतों के बाद भी
जिस किसी को
याद नहीं आऊंगा मैं
उसे ध्‍यान दिलाया जाएगा
मेरे बाएं गाल का सफेद निशान
और दाईं कलाई पर उठा गूमड़

याद करेंगे लोग
कि हमने नहीं सुना उससे
कभी अभिवादन का जवाब  
जिन्‍होंने सुना होगा
वे भी नहीं डालना चाहेंगे 
अपनी याददाशत पर जोर

कहेंगे
लोग कि
हमने नहीं देखा कभी
उसे मद्धम आवाज में बोलते
जो होंगे गवाह इस बात के
वे भी शायद नहीं करेंगे खंडन

याद दिलाएंगे
शायद मकड़ी के जाले
फर्श पर पड़े चाय के निशान
या फिर पेशाबघर से आती गंध
जो खटकते थे मुझ आदमी की आंख में
या कि नाक में

जब भी
टेबिल पर लिख पाएगा
कोई अपना
या अपने प्रिय का नाम
बिना कलम के
तब भी स्‍मृतियों में कौंध जाऊंगा मैं
संभव है कोने में चुपचाप
खड़ी झाड़ू भी पुकार उठे मेरा नाम

निर्देशों और सूचनाओं से विहीन
दीवार बरबस
याद दिलाएगी मेरी
और कुछ लोग 
कुछ न लिखा होने के बावजूद भी 
पढ़ लेंगे वहां

बहुत संभव है
ऐसी और तमाम बातें
होंगी ही याद दिलाने के लिए

शुक्र है
कि किसी न किसी
बहाने याद आऊंगा ही मैं
अक्‍खड़,बदमिजाज और
एक हद तक बदतमीज आदमी।
0 राजेश उत्‍साही
(सन् 2000 के आसपास भोपाल में लिखी गई यह कविता पिछले हफ्ते ऐसा कुछ घटा कि अचानक फिर याद आ गई।)

रविवार, 18 सितंबर 2011

सफर में


                                                                            फोटो : राजेश उत्‍साही 
जाते हुए
रोज के सफर पर, अक्‍सर
हम ढूंढते हैं ऐसी जगह
जहां बैठी हो कोई सुंदर स्‍त्री

किसी भी तरह
प्रयत्‍न करते हैं
उसके सामने बैठने
या खड़े होने का
ताकि निहार पाएं उसे
सेंक पाएं अपनी आंखें

थोड़ी ही देर में
शुरू होता है मानसिक मैथुन
रेंगना शुरू कर देते हैं
उसकी देह पर

खो जाते हैं
एक कल्‍पनातीत संसर्ग में
काटकर उसे
उसकी दुनिया से ले आना
चाहते हैं अपने साथ

संभव है
वह मां हो दो प्‍यारे-प्‍यारे
बच्‍चों की
हमसे कहीं अधिक
सुंदर मनोहर जीवन साथी हो
उसका
करता हो उसे स्‍नेह बेशुमार
तमाम परिजनों से भरा-पूरा
परिवार हो उसका

या कि यातना
भोग रही हो अपने जीवन में
रोज तिल-तिल मरकर

हमें
इससे क्‍या
हम तो भोगना चाहते हैं
उसे पल दो पल
बनाना चाहते हैं
सपनों की साम्राज्ञी
न्‍यौछावर करना चाहते हैं
अपना जीवन
या कि हवस?
0 राजेश उत्‍साही

सोमवार, 4 जुलाई 2011

तीन : इतनी जल्‍दी नहीं मरूंगा मैं !


तय है 
मरूंगा एक दिन
पर इतनी जल्‍दी नहीं
तसल्‍ली रखें !

बच
गया था
मौत के आगोश में जाने से
सन् उन्‍नीस सौ सत्‍तर में
सीख रहा था जब
चलाना सायकिल

मई की
एक तपती दोपहरी में
सबलगढ़ की बीटीआई जाने वाली 
सुनसान सड़क पर
मेरे अलावा
केवल लू चल रही थी

सायकिल
पर सवार मैं
कभी दायां,कभी बायां पांव
पैडल तक पहुंचाने की कोशिश में
जूझ रहा था

डगमगाती
सायकिल बढ़ रही थी
पिघलते कोलतार की सड़क पर

तभी
लगभग मुझे
धकाती परे सड़क से
गुजर गई थी बस एक
आंधी की तरह मेरी बगल से

अचकचाकर
गिरा था सा‍यकिल सहित
चारों खाने चित्‍त मैं
पिछला पहिया
गुजरा था मुझसे
बस का
बस इंच भर की दूरी से

रूकी थी बस
उतरकर आया था कंडक्‍टर
खाईं थीं उससे
कुछ भद्दी गालियां और दो थप्‍पड़
बेवजह

पर
सलामत थे
मैं और मेरी सायकिल
तो तसल्‍ली रखें
इतनी जल्‍दी (?)
नहीं मरूंगा मैं !!

0 राजेश उत्‍साही

शनिवार, 11 जून 2011

दो : इतनी जल्‍दी नहीं मरूंगा

मरूंगा
मैं एक दिन
पर इतनी जल्‍दी नहीं
तसल्‍ली रखें

रह आया
मैं जिन्‍दा जब
पढ़ता था पांचवीं
सबलगढ़ जिला मुरैना में

अक्‍टूबर ,1969
की एक दोपहरी में
बारिश भर
बिस्‍तर पेटी में कैद रहे अलसाए
कपड़ों को भा रही थी धूप
वे फैले थे आंगन में

पिताजी काम पर गए थे
मां बीस गज की दूरी पर
नल से गिरते
कल कल करते जल 
के नीचे धो रही थीं
कपड़े

घर सुनसान था
केवल एक गौरेया 
यहां से वहां फुदक रही थी
खाली थी बिस्‍तर पेटी
टीन की बनी पेटी
हमेशा उकसाती रही थी मुझे
अपने अन्‍दर सोने के लिए

पाकर मौका यह
जा लेटा था मैं उसमें
करवट अदल बदलकर
अहसास भर रहा था अपने में
बिस्‍तर होने का
तभी
भरभराकर गिरा था
पेटी का ढक्‍कन
सांकल ने थाम लिया था कुन्‍दों को
कैद हो गए थे
मैं और मेरे अहसास
बिस्‍तर पेटी में

घबराकर
हाथ-पांव मारे थे
घुटने लगा था दम
आवाज अटक गई थी हलक में
बन्‍द होने लगी थीं आंखें
शरीर होने लगा था निढाल
समेटकर ताकत सारी
चिल्‍लाया था मैं जोर से
अम्‍मां 
बस एक बार

डोर
टूट रही थी जीवन की
कोस रहा था उस मनहूस घड़ी को
जब सोचा था करने को यह प्रयोग

तभी खुला था जैसे आसमान 
सामने अम्‍मां खड़ी थीं
लथपथ गीले कपड़ों में

वे अनंत से आती
मेरी चीख सुनकर दौड़ी चलीं आईं थीं
बीस गज दूर से 
वे गईं थीं सप्‍पने में
जहां रखा होता था पानी का ड्रम
कहीं मैं उसमें तो नहीं
डूब गया
और फिर अचानक ही उनकी निगाह
पड़ी थी बंद बिस्‍तर पेटी पर 

जिसमें
मैं लेटा था
पसीने से तरबतर
लिए लाल से पीला होता चेहरा

तो बचा था
एक बार फिर
होते-होते मुर्दा
तसल्‍ली रखें
इतनी जल्‍दी (?)
नहीं मरूंगा मैं ।

0 राजेश उत्‍साही

रविवार, 22 मई 2011

इतनी जल्‍दी नहीं मरूंगा मैं : एक


पढ़कर
मरने की मेरी ख्‍वाहिश
परेशान हैं सब
तसल्‍ली रखें
इतनी जल्‍दी नहीं मरूंगा मैं

रहा था मैं
जिन्‍दा
तब भी, जब था कुल जमा
इक्‍कीस‍ दिन का
अपने मां-बाप की तीसरी संतान
पहली दो इतने दिन भी पूरी नहीं कर पाई थीं
इस नश्‍वर संसार में

बकौल नानी
जो अब नहीं हैं 
कहने को वे 1995 तक तो थीं
उन्‍हें गुजरे भी जमाना गुजर गया
दिसम्‍बर 1958 की एक सर्द रात को
मां के सीने से चिपका निद्रालीन था
पत्‍थर से बने घुड़सालनुमा रेल्‍वे क्‍वार्टर में
पिता पास ही बने स्‍टेशन में
बतौर स्‍टेशन मास्‍टर रात बारह से आठ की ड्यूटी बजा रहे थे

क्‍वार्टर अब भी हैं
मिसरोद या मिसरोड रेल्‍वे स्‍टेशन के किनारे
भोपाल से जाते हुए इटारसी की तरफ पहला स्‍टेशन
जब भी गुजरता हूं यहां से
बदन में सुरसुरी सी दौड़ जाती है क्‍वार्टर देखकर

तो क्‍वार्टर में थी
निझाती हुई अंगीठी,
जिसके कोयलों में जान बाकी थी
कोयले किसी पैसेंजर गाड़ी के भाप इंजन ड्रायवर से
सर्दी और छोटे बच्‍चे का वास्‍ता देकर हासिल किए गए थे

कोयले बदल रहे थे क्‍वार्टर को
कार्बनडायआक्‍साइड या 
ऐसी ही किसी दमघौंटू गैस के चैम्‍बर में

न जाने किस क्षण
घुटन महसूस की मां ने
और उठाकर मुझे बदहवास भागीं बाहर की ओर
गिरीं चक्‍कर खाकर आंगन में धड़ाम से
चीखकर रोया था मैं
और घबराकर मां

रात के सन्‍नाटे में सुनकर हमारा विलाप
पिता जी भागे चले आए थे  
और तभी कोई गाड़ी धडधड़ाती हुई गुजर गई थी
स्‍टेशन पर बिना रुके

मैं 
सुरक्षित था
तो तसल्‍ली रखें
इतनी जल्‍दी (?)
नहीं मरूंगा मैं ।

0 राजेश उत्‍साही

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