छाया: राजेश उत्साही |
मैं
बिखर जाने से पहले
जीना चाहता हूं
बिखर जाने से पहले
जीना चाहता हूं
फूल भर जिन्दगी
महकाना चाहता हूं
सुवास अपनी
मैं
हवाओं में विलीन होने से पहले
हंसना चाहता हूं
उन्मुक्त हंसी
भरकर फेफड़ों में
शुद्ध प्राणवायु
मैं
नष्ट होने से पहले
चूमना चाहता हूं
एक जोड़ी पवित्र होंठ
तृप्त होने तक
मैं
देह विहीन से होने से पहले
स्वीकारना चाहता हूं
अपराध अपने
ताकि
रहे आत्मा बोझविहीन
मैं
चेतना शून्य होने से पहले
सोना चाहता हूं
रात भर
इत्मीनान से
ताकि न रहे उनींदापन
सच तो
यह है कि
मैं
मरना नहीं चाहता हूं
मरने से पहले ।
0 राजेश उत्साही
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रश्मिप्रभा जी और रवीन्द्र प्रभात जी द्वारा संचालित ब्लाग वटवृक्ष पर यह कविता 27 अक्टूबर प्रात: 11 बजे से 28 अक्टूबर की दोपहर बाद 4 बजे तक लगभग 30 घंटे तक रही। मैं वटवृक्ष का आभारी हूं। वटवृक्ष पर आए पाठकों ने क्या कहा उसका एक संक्षिप्त विवरण यहां है। वंदना, संजय भास्कर, एम वर्मा, वाणी गीत, मुकेश कुमार सिन्हा : एक सुन्दर सकारात्मक सोच दर्शाती रचना। नरेन्द्र व्यास, कविता रावत, सुज्ञ, सुनील कुमार : आत्म मंथन का सुन्दर चिंतन और दार्शनिक भाव। देवेन्द्र पाण्डेय: अंतिम पंक्तियों में कविता अपने पत्ते खोलती है। एक सशक्त कविता।
अरुण सी राय: कविता शुरू से साधारण लगती हुई अचानक अंतिम पंक्तियों में असाधारण हो जाती है.. जीवन के प्रति अदम्य जिजीविषा इन पक्तियों में है.. जहाँ आज के समय में जब मूल्य बदल रहे हैं, जीवन के मायने बदल रहे हैं.. एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं हम.. खास तौर पर मानसिक स्तर पर.. हम हर पल किसी ना किसी तरह मर रहे हैं.. ऐसे में यह कविता जीवन के प्रति प्रतिबद्धित दिखती है।
बिहारी ब्लागर यानी सलिल वर्मा: ज़िंदगी को नापने का पैमाना ही हमने बरसों का बना लिया है,जबकि ज़िंदगी तो बस जीने और मरने के दो खूँटे के बीच की दौड़ है. कवि ने जीवन की इस दौड़ के जिन पड़ाव का वर्णन किया है, वही जीवन को जीवन बनाते हैं और उनका न होना मृत्यु! राहुल सिंह: 'मरना नहीं चाहता हूं, मरने से पहले' इसीलिए तो कविता बन पाई है। प्रवीण पाण्डेय: जीवन को जी लेने की उत्कट अभिलाषा, समय का चौंधियाना हमारी आँखों में, बचने का उपक्रम, छाँह ढूढ़ने का प्रयास।
बलराम अग्रवाल: 'वस्तुत: तो यह मानवीय सरोकारों की कविता है। इसमें 'मैं' को 'व्यष्टिवाची' न देखकर 'समष्टिवाची' देखने से यह व्यापक अर्थयुक्त कविता है। कवि को इस व्यापक सहृदयता के लिए बधाई।' शिखा वार्ष्णेय, अजित वडनेकर,आशीष,ZEAL, मजाल,अंजाना को भी कविता अच्छी लगी।
..........अब आपकी बारी है।
अरुण सी राय: कविता शुरू से साधारण लगती हुई अचानक अंतिम पंक्तियों में असाधारण हो जाती है.. जीवन के प्रति अदम्य जिजीविषा इन पक्तियों में है.. जहाँ आज के समय में जब मूल्य बदल रहे हैं, जीवन के मायने बदल रहे हैं.. एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं हम.. खास तौर पर मानसिक स्तर पर.. हम हर पल किसी ना किसी तरह मर रहे हैं.. ऐसे में यह कविता जीवन के प्रति प्रतिबद्धित दिखती है।
बिहारी ब्लागर यानी सलिल वर्मा: ज़िंदगी को नापने का पैमाना ही हमने बरसों का बना लिया है,जबकि ज़िंदगी तो बस जीने और मरने के दो खूँटे के बीच की दौड़ है. कवि ने जीवन की इस दौड़ के जिन पड़ाव का वर्णन किया है, वही जीवन को जीवन बनाते हैं और उनका न होना मृत्यु! राहुल सिंह: 'मरना नहीं चाहता हूं, मरने से पहले' इसीलिए तो कविता बन पाई है। प्रवीण पाण्डेय: जीवन को जी लेने की उत्कट अभिलाषा, समय का चौंधियाना हमारी आँखों में, बचने का उपक्रम, छाँह ढूढ़ने का प्रयास।
बलराम अग्रवाल: 'वस्तुत: तो यह मानवीय सरोकारों की कविता है। इसमें 'मैं' को 'व्यष्टिवाची' न देखकर 'समष्टिवाची' देखने से यह व्यापक अर्थयुक्त कविता है। कवि को इस व्यापक सहृदयता के लिए बधाई।' शिखा वार्ष्णेय, अजित वडनेकर,आशीष,ZEAL, मजाल,अंजाना को भी कविता अच्छी लगी।
..........अब आपकी बारी है।