लिखकर
एक कविता महसूस
करता हूं मैं
जैसे कई रातों की उनींदी आंखें
दिन-दिन भर सो उठती हैं तरोताजा होकर
एक
कविता लिखकर
महसूस करता हूं मैं
जैसे कोई गर्भणी सफल प्रसव के बाद
मातृत्व के उल्लास से
भर उठती है
जैसे
एक पिता
अपने नवजात शिशु को दुलारकर
भूल जाता है सृष्टि की नश्वरता
महसूस
करता हूं मैं
लिखकर एक कविता
जैसे
एक मेहनतकश भर दोपहरी में
रोटी पर रखकर प्याज
नीम तले
करता है ब्यालू
पीता है ओक से
लोटा भर पानी
और निकाल फेंकता है
सारी थकान
लेकर एक लम्बी डकार
लिखकर
महसूस करता हूं मैं
एक कविता
जैसे
घूमते हुए चाक पर
गीली मिट्टी से गढ़कर ठण्डा पानी
रोमांचित हो उठता है उसका सृजनकार
कुछ कुछ वैसा ही
महसूस करता हूं मैं
लिखकर
एक कविता।
* राजेश उत्साही