गुरुवार, 16 सितंबर 2010

नया जन्‍म: नीमा के बहाने: समापन किस्‍त

मित्रो जैसा कि आप जानते हैं मैं अपनी धर्मपत्‍नी नीमा पर एक लम्‍बी कविता लिख रहा था। उसके एक, दो, तीन भाग पहले यहां आप पढ़ चुके हैं। यह उसकी चौथी और समापन किस्‍त है। यह कविता नीमा के प्रति मेरी एक सार्वजनिक आदरांजलि है। बहुत संभव है इसका कोई साहित्यिक महत्‍व न हो।




तमाम कोशिशों के बावजूद
आदर्शों पर खरे नहीं उतर पाए थे हम
परम्‍परा से चली आ रही
तकरार हमारे घर
में भी मौजूद थी
घर से
बाहर जाने का
रास्‍ता चुनना पड़ा था हमें
कुछ व्‍यवहारिकताएं थीं
और कुछ समझौते
 
सबकी सहमति के बाद
साल भर के नन्‍हें कबीर को लेकर
हम आ गए थे भोपाल

तुमने
अपना सारा समय उसे,मुझे
और घर संभालने में लगा दिया था
पांच साल गुजर गए

सोचा था कबीर स्‍कूल जाने लगेगा
तो तुम्‍हारे पास समय होगा
कुछ और करने का
कबीर और उत्‍सव के साथ 

पर नियति को कुछ और मंजूर था
कबीर के बाद उत्‍सव
और फिर
दोनों को संभालने में
तुम्‍हारा पूरा समय
मुझे मेरे दफ्तर और चकमक से 
फुरसत ही कहां थी

दस साल में दुनिया
कहां से कहां पहुंच जाती है
नर्मदा में बहुत पानी बह गया था
तुमने जो महाविद्यालय में पढ़ाया था
वह सब पुराना हो गया था
नए से तुम्‍हारा वास्‍ता नहीं बन पाया था

हमने कोशिश की थी
भोपाल के कुछ प्राइवेट स्‍कूलों में
पढ़ाने का काम खोजने की
काम मिला भी था
पढ़ाने भर नहीं पूरा स्‍कूल संभालने का

मतलब
तीन कमरों में भरे बीस-तीस बच्‍चे और
उन्‍हें पढ़ाने वाले तीन चार अप्रशिक्षित
युवक-युवतियां
मानदेय की राशि इतनी कि
घर से स्‍कूल तक जाने-आने का खर्चा
भी नहीं निकल पाए

शायद
अंदर ही अंदर
तुम कुंठित होकर
अवसाद में घिर रही थीं
अनिद्रा का शिकार होने लगीं थीं
याद है मुझे 
एक बार लगातार पांच-छह रात 
तुम सोयी नहीं थीं
हमें अंतत:
च‍िकित्‍सक और फिर
मनोचिकित्‍सक की सलाह लेनी पड़ी थी

उसने ही सुझाया था
दवाओं पर निर्भर न रहें
अपने आत्‍मबल को जगाएं
योग करें
जो है आपके पास उसे पूरी तरह जिएं
जो नहीं है उसके बारे में सोचकर समय
जाया न करें

तुमने जगाया था
अपना आत्‍मबल
खुद ही खोज निकाला था
घर से चंद कदम की दूरी पर 
एक योग केन्‍द्र
और जाने लगीं थीं वहां सुबह सुबह
योग गुरु हेमलता सिघंई और शोभा बोन्द्रिया के साथ

देखते ही देखते
अवसाद से उभर आईं थी तुम
योग केन्‍द्र की
सबसे चहेती शिष्‍या बन गईं थीं
जब दूसरे शिक्षक नहीं आते थे,
तुम उनकी जिम्‍मेदारी संभालने लगीं थीं
सचमुच
योग ने तुम्‍हारे अंदर एक
नई नीमा को जन्‍म दिया था


आज तुम
पिछले आठ सालों से  
योग केन्‍द्र चला रही हो
वह भले ही तुम्‍हें ‘अर्थ’ न दे पाया हो
पर उसने तुम्‍हारी जिंदगी को एक अर्थ दे दिया है
अपने को स्‍वस्‍थ्‍य रखने के साथ साथ
औरों तक यह संदेश पहुंचा रही हो

इतना ही नहीं 
इस बीच
तुमने सीखा था वर्गपहेली बनाना
यकीन करना ही होगा
कि शाम के एक अखबार के
शब्‍द संसार कालम के लिए प्रतिदिन
तुमने दस साल तक बनाई वर्गपहेली


उसके मानदेय से
आए घर में फ्रिज,वाशिंग मशीन
दीवान और ऐसी तमाम चीजें
और उससे भी महत्‍वपूर्ण यह है कि
वह खोया हुआ भाव कि
तुम्‍हारे होने का भी कुछ अर्थ है 
तुम अकारथ नहीं हो

नीमा
घर से सोलह सौ किलोमीटर दूर
जाने की हिम्‍मत तुमने ही दी मुझे
बच्‍चों के बीच मां और पिता की
दोहरी जिम्‍मेदारी तुमने ही उठाई है
अब इससे ज्‍यादा क्‍या कहूं
कि 
तुमने एक व्‍यवहारिक पत्‍नी की भूमिका
हर पल निभाई है
मैसूर के पास श्रीरंगपटना में टीपू सुल्‍तान
के महल के परिसर में (25 जून, 2010)

हम 
साथ-साथ हैं
और रहेंगे
आज की बस इतनी 
और इतनी ही सच्‍चाई है।
                          0 राजेश उत्‍साही

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