मरूंगा
मैं एक दिन
पर इतनी जल्दी नहीं
तसल्ली रखें
रह आया
मैं जिन्दा जब
पढ़ता था पांचवीं
सबलगढ़ जिला मुरैना में
अक्टूबर ,1969
की एक दोपहरी में
बारिश भर
बिस्तर पेटी में कैद रहे अलसाए
कपड़ों को भा रही थी धूप
वे फैले थे आंगन में
पिताजी काम पर गए थे
मां बीस गज की दूरी पर
नल से गिरते
कल कल करते जल
के नीचे धो रही थीं
कल कल करते जल
के नीचे धो रही थीं
कपड़े
घर सुनसान था
केवल एक गौरेया
यहां से वहां फुदक रही थी
केवल एक गौरेया
यहां से वहां फुदक रही थी
खाली थी बिस्तर पेटी
टीन की बनी पेटी
हमेशा उकसाती रही थी मुझे
अपने अन्दर सोने के लिए
पाकर मौका यह
जा लेटा था मैं उसमें
करवट अदल बदलकर
अहसास भर रहा था अपने में
बिस्तर होने का
तभी
भरभराकर गिरा था
भरभराकर गिरा था
पेटी का ढक्कन
सांकल ने थाम लिया था कुन्दों को
कैद हो गए थे
मैं और मेरे अहसास
बिस्तर पेटी में
घबराकर
हाथ-पांव मारे थे
घुटने लगा था दम
आवाज अटक गई थी हलक में
बन्द होने लगी थीं आंखें
शरीर होने लगा था निढाल
समेटकर ताकत सारी
चिल्लाया था मैं जोर से
अम्मां
बस एक बार
बस एक बार
डोर
टूट रही थी जीवन की
टूट रही थी जीवन की
कोस रहा था उस मनहूस घड़ी को
जब सोचा था करने को यह प्रयोग
जब सोचा था करने को यह प्रयोग
तभी खुला था जैसे आसमान
सामने अम्मां खड़ी थीं
लथपथ गीले कपड़ों में
वे अनंत से आती
मेरी चीख सुनकर दौड़ी चलीं आईं थीं
बीस गज दूर से
वे गईं थीं सप्पने में
जहां रखा होता था पानी का ड्रम
कहीं मैं उसमें तो नहीं
डूब गया
और फिर अचानक ही उनकी निगाह
पड़ी थी बंद बिस्तर पेटी पर
जिसमें
मैं लेटा था
पसीने से तरबतर
लिए लाल से पीला होता चेहरा
तो बचा था
एक बार फिर
होते-होते मुर्दा
तसल्ली रखें
इतनी जल्दी (?)
नहीं मरूंगा मैं ।
0 राजेश उत्साही