गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

लिखें इबारत नए ख्‍याल से !


मुबारक
क्‍कीस का

नए साल के नर्म गाल पे,
आओ मलें सब रंग गुलाल के !

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

चक्की पर

कविता के बहाने

होशंगाबाद में बस स्टैंड और थाने के पास सतरस्ता़ है। वहां वास्तव में एक दो नहीं पूरे सात रास्ते आकर मिलते हैं। यहां से एक रास्ता रेल्वे  स्टेशन को जाता है तो दूसरा बस स्टैंड को। तीसरा थाने के सामने से स्टेडियम की तरफ। चौथा इतवारा बाजार होता हुआ मोरछली चौक को। पांचवा तहसील के बाजू से होता हुआ इतवारा बाजार में से निकलकर सराफा चौक होता हुआ सीधा नर्मदाघाट तक। छठवां रास्ता कंजर मोहल्ले की तरफ और सातवां रास्ता रेल लाइन के नीचे से निकलकर ग्वालटोली की तरफ। रेल्वे स्टेशन की तरफ जाने वाली सड़क पर कोने में एक पोस्ट आफिस हुआ करता था। पोस्ट आफिस के पीछे एक आटा चक्की। इस आटा चक्की का नाम था चंद्रप्रभा फ्लोर मिल। चक्की संतोष रावत चलाते थे। संतोष मेरे मित्र थे। पहले उन्होनें बीएससी किया और फिर एमए,एलएलबी। लेकिन नौकरी नहीं मिली। तय किया कि खाली बैठने से अच्छा है,चक्की चलाई जाए। बस बैठ गए चक्की पर। पर वे केवल बैठते नहीं थे,बाकायदा चक्की चलाते भी थे। मैंने भी उन्हीं दिनों (यानी 1979) नेहरू युवक केन्द्र में नौकरी शुरू की थी। बस जब छुट्टी होती या समय होता तो चक्की  पर जा बैठता। वह हमारा एक तरह से अड्डा था। कुछ और भी लोग जुटते थे।  दुनिया जहान की बातें होती। संतोष भी साहित्य  में रूचि रखते थे और लिखते भी थे। ये कविताएं उसी दौर की हैं। संतोष आजकल भोपाल में भारतीय स्टेट बैंक में अधिकारी हैं। 

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

तुम न जाने कहां खो गए


तुम न जाने कहां खो गए


तुम लिखकर अपनी कहानी

स्‍मृति के पन्‍नों पर सो गए



उषा की मधुर बेला में

सपनों में तुम आते थे

निद्रा से जगने पर पाया

केश मेरे तुम सुलझाते थे

अब खुद ही उलझन हो गए

तुम लिखकर अपनी कहानी

स्‍मृति के पन्‍नों पर सो गए



ग्रीष्‍म की हो भरी दुपहरी

या वर्षा का रिमझिम दिन

या शरद का ठंडा मौसम

क्षण कब कटते थे तुम बिन

कट जाते हैं दिन कैसे हो गए

तुम लिखकर अपनी कहानी

स्‍मृति के पन्‍नों पर सो गए



हर संध्‍या पश्चिम में सूरज

नदिया में जब  डूबता है

अपने नीड़ लौटता हर पंछी

बस पता तुम्‍हारा पूछता है

मीत न जाने किस दिशा गए

तुम लिखकर अपनी कहानी

स्‍मृति के पन्‍नों पर सो गए





मदमाती रातों का चांद

जब जब उगता है अब

शहद सा मीठा स्‍वर तुम्‍हारा

कानों में घुल उठता है तब

साज सभी लयहीन  हो गए

तुम लिखकर अपनी कहानी

स्‍मृति के पन्‍नों पर सो गए

 *राजेश उत्‍साही

(24 सितम्‍बर,1977, संपादित 11 अक्‍तूबर,2009)




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