रविवार, 22 मई 2011

इतनी जल्‍दी नहीं मरूंगा मैं : एक


पढ़कर
मरने की मेरी ख्‍वाहिश
परेशान हैं सब
तसल्‍ली रखें
इतनी जल्‍दी नहीं मरूंगा मैं

रहा था मैं
जिन्‍दा
तब भी, जब था कुल जमा
इक्‍कीस‍ दिन का
अपने मां-बाप की तीसरी संतान
पहली दो इतने दिन भी पूरी नहीं कर पाई थीं
इस नश्‍वर संसार में

बकौल नानी
जो अब नहीं हैं 
कहने को वे 1995 तक तो थीं
उन्‍हें गुजरे भी जमाना गुजर गया
दिसम्‍बर 1958 की एक सर्द रात को
मां के सीने से चिपका निद्रालीन था
पत्‍थर से बने घुड़सालनुमा रेल्‍वे क्‍वार्टर में
पिता पास ही बने स्‍टेशन में
बतौर स्‍टेशन मास्‍टर रात बारह से आठ की ड्यूटी बजा रहे थे

क्‍वार्टर अब भी हैं
मिसरोद या मिसरोड रेल्‍वे स्‍टेशन के किनारे
भोपाल से जाते हुए इटारसी की तरफ पहला स्‍टेशन
जब भी गुजरता हूं यहां से
बदन में सुरसुरी सी दौड़ जाती है क्‍वार्टर देखकर

तो क्‍वार्टर में थी
निझाती हुई अंगीठी,
जिसके कोयलों में जान बाकी थी
कोयले किसी पैसेंजर गाड़ी के भाप इंजन ड्रायवर से
सर्दी और छोटे बच्‍चे का वास्‍ता देकर हासिल किए गए थे

कोयले बदल रहे थे क्‍वार्टर को
कार्बनडायआक्‍साइड या 
ऐसी ही किसी दमघौंटू गैस के चैम्‍बर में

न जाने किस क्षण
घुटन महसूस की मां ने
और उठाकर मुझे बदहवास भागीं बाहर की ओर
गिरीं चक्‍कर खाकर आंगन में धड़ाम से
चीखकर रोया था मैं
और घबराकर मां

रात के सन्‍नाटे में सुनकर हमारा विलाप
पिता जी भागे चले आए थे  
और तभी कोई गाड़ी धडधड़ाती हुई गुजर गई थी
स्‍टेशन पर बिना रुके

मैं 
सुरक्षित था
तो तसल्‍ली रखें
इतनी जल्‍दी (?)
नहीं मरूंगा मैं ।

0 राजेश उत्‍साही

शनिवार, 7 मई 2011

मैंने सोचा

गुजरते हुए
शाहपुरा झील के किनारे से
मैंने सोचा
खड़ा कर दूं स्कूटर एक तर
और उतर जाऊं
झील के अन्दर
कपड़े पहने-पहने ही

आसपास कोई नहीं है
हां सड़क पर आवागमन जारी है
सब अपनी धुन में हैं
किसे फुरसत है इधर-उधर देखने की

सोचा कैसे होगी
मेरी शिनाख्त
प्लास्टिक मढ़ा या कि चढ़ा
कोई आइडिंयेटी कार्ड नहीं है जेब में
हां लायसेंस जरूर है
पर वह तो पानी में गल चुका होगा
उस पर लिखे अक्षर घुल चुके होंगे

पेंट की पिछली जेब में
रखी डायरी
भी हो चुकी होगी तार-तार
और शायद उसके पन्ने भी
पानी की सतह पर उतरायेंगे
मेरी ही तरह
कुछ समय बाद

झील के किनारे
खड़ा रहेगा
बदरंग स्कूटर कुछ समय यूं ही
फिर खटकने लगेगा
लावारिस की तरह हर 
आने-जाने वाले की आंख में

फिर कोई राह चलता
भला मानुष
इत्तला कर देगा
थाने में फोन पर

आएगी पुलिस
पूछताछ करेगी
आसपास
फिर तोड़ेगी डिक्की
उसमें से निकलेंगे कागज
गाड़ी के
जिनमें होगा नाम पता मेरा
तब तक धंस चुका होऊंगा मैं
झील की गहराई में

गुजरते हुए
शाहपुरा झील के किनारे से
मैंने सोचा!
(ये सोच भी अजीब शह है। हम जब सोचना शुरू करते हैं तो क्‍या-क्‍या सोच लेते हैं। यह कुछ बरस पहले की अभिव्‍यक्ति है। शाहपुरा झील भोपाल में है। जब यह कविता दोस्‍तों को पढ़वाई तो कुछ अजीब सी प्रतिक्रिया हुई। जवाब में तीन-चार कविताएं और निकल आईं। वे बाद में।) 
                                        0 राजेश उत्‍साही

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