रविवार, 26 अगस्त 2012

औचित्‍य


                                                                                                               राजेश उत्‍साही 
हमारे बदलने 
न बदलने से
इस दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता
दुनिया है कि चलती रहती है
दुनिया है कि बदलती रहती है।

हमारे रोने
न रोने से
इस दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता
दुनिया है कि हंसती रहती है
दुनिया है कि चहकती रहती है।

हमारे होने
न होने से
इस दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता
दुनिया है कि ढलती रहती है
दुनिया है कि मचलती रहती है।

हमारे गलने
न गलने से
दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता
दुनिया है कि गलती नहीं है
दुनिया है कि पिघलती नहीं है

हमारे खटने
न खटने से
दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता
दुनिया है कि खटती रहती है
दुनिया है कि भटकती रहती है।

हमारे मिटने
न मिटने से
दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता
दुनिया है कि मिटती रहती है
दुनिया है कि संवरती रहती है।
 
हमारे
बदलने, रोने,गलने,खटने,मिटने, होने
और ऐसी तमाम अनगिनत क्रियाओं से  
किसी को फर्क पड़े न पड़े
हमें तो फर्क पड़ना ही चाहिए

वरना
बदलने,रोने,गलने,खटने,मिटने,होने
और ऐसी तमाम अनगिनत क्रियाओं
का क्‍या औचित्‍य !
0 राजेश उत्‍साही

शनिवार, 11 अगस्त 2012

होशंगाबाद में नर्मदा



                                                                                                   गूगल सर्च से साभार 
(1982 में लिखी गई एक और कविता)
यह है होशंगाबाद
मालवा के मुगल बादशाह
होशंगशाह का बसाया नगर

मध्‍यप्रदेश की जीवनधारा
नर्मदा के
किनारे बसा होशंगाबाद

सोमवती अमावस्‍या हो
शिवरात्रि या मकर संक्रांति
रेलें ठसाठस
भरी होती हैं

सिर पर रखे पोटलियां
कंधों पर लादे बच्‍चे
लोग उतरते हैं
होशंगाबाद के रेल्‍वे प्‍लेटफार्म पर

छमिया किते गई
गुड्डू कां हैं
और बड़े वीर
जा तरफ से निकल चलो
जैसी तमाम आवाजों से गूंज उठता है स्‍टेशन

टिकट बाबू
जो दे,वो भी जाए
जो न दे,वो भी जाए
की अदा में
खड़ा रहता है निर्विकार
सफेद पैंट और काले कोट में

बस अड्डे पर
बसों का रहा-सहा
कचूमर निकलने को हो आता है
एक के ऊपर एक
लदे-फदे लोग ठसे रहते हैं बसों में

सारे नगर की
गलियां,नर्मदा घाट तक
पटी रहती हैं जनसमूह से
कंधे छिलते हैं
और ‘भाई’ लोग मनाते हैं
मसक चौदस

फुटपाथ पर
उतर आती हैं
हिव्‍सकी और रम की खाली बोतलें
लोग खरीदते हैं
और भरते हैं उनमें नर्मदा जल
लगाते हैं श्रद्धा से माथे के साथ

लाल आंखों और पीली वर्दी में
नाव में सवार
घूमते रहते हैं मगरमच्‍छ
नर्मदा में एक सिरे से दूसरे सिरे तक
नाव के पास आते ही
सहम जाती हैं घाट पर स्‍नान करती महिलाएं

इंस्‍पेक्‍टर सा‍हब
ऊपर गुरजे पर खड़े मुस्‍काराते हैं
अपने कारिंदों की कारगुजारी पर

अकील अहमद
कानपुर वाला
बेचता है सेठानी घाट पर
शिव की मूर्ति
शंख,आरती थाली
बड़े फन वाला तांबे का नाग
भगवान का सिंहासन,आचमनी
और पूजा पाठ
की तमाम चीजें

सरताज बानो और उसकी बहनें
जाती हैं पल्‍ले पार
नहाने नर्मदा में।
0 राजेश उत्‍साही  

सोमवार, 6 अगस्त 2012

नर्मदा

                                                                          दैनिक भास्‍कर के सौजन्‍य से
(होशंगाबाद, मप्र से छोटे भाई अनिल ने खबर दी है। वहां इतनी बारिश हुई है कि घर में पानी भर गया है। 1982 में भी ऐसे ही हालात हुए थे। तब यह कविता लिखी गई थी।)
नर्मदा में
निरंतर चढ़ रहा है पानी
चेतावनी
देती सरकारी जीप
सारी रात
दौड़ती रही

निचली बस्तियों के
रहवासियो
करो खाली करो झोपडि़यां
पहुंचों स्‍कूलों में
शरण शिविरों में

मां नर्मदे
निरंतर चढ़ रही हैं
खतरे का निशान,
अब पार किया,तब पार किया

काले महादेव डूब गए हैं
कहते हैं काले महादेव डूब गए
यानी
पानी शहर में होगा

नर्मदा आ गई है
सुभाष चौक तक
घुटने-घुटने पानी में
खड़े लोग देख रहे हैं
विकराल रूप

बाजार में छाया है
भय
आज का नहीं
73 की बाढ़ का

सेठिए
खाली कर रहे हैं
दुकानें
घबराए हुए
मुख्‍य बाजार
इतवारा बाजार
लद रहा है ट्रकों और हाथ ठेलों पर
लगाया जा रहा है
ऊंची और सुरक्षित अट्टालिकाओं में

मैंने देखा
ठेठ नर्मदा की
पिचन पर
बनी झोपडि़यों में
गाई जा रही है आल्‍हा
उसी लय में
जिस लय में चढ़ रही है
नर्मदा निरंतर ।

0 राजेश उत्‍साही 

रविवार, 5 अगस्त 2012

दोस्‍त


                                                                               राजेश उत्‍साही 
दोस्‍त
बिछुड़कर भी
जो आता रहे
याद।
*
दोस्‍त
की
केवल एक ही जाति होती है
केवल एक ही राशि होती है
केवल एक ही धर्म होता है
केवल एक ही वर्ग होता है
केवल एक ही रंग होता है
केवल एक ही ढंग होता है
केवल एक ही कर्त्‍तव्‍य होता है
केवल एक ही अधिकार होता है
दोस्‍ती
*
दोस्‍त
अच्‍छा या बुरा
नहीं होता
दोस्‍त होता है।


0 राजेश उत्‍साही
                             

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