आदमी
का मन
हरम है
अंत:पुर में
सबको रखता है
चाहा हो पल भर के लिए
या किया हो
मरते दम तक का संकल्प
आदमी
का मन
चंचल पक्षी है
भटकता है
दूर-दूर
बैठ आंगनों की मुंडेर पर
लौटता है अपने चौबारे में
मन
आदमी का
पालतू पशु है
दिन-दिन भर
करके आवारागर्दी
पहुंचता है खूंटे पर
ताजुब्ब
न करें कि
मैं भी आखिर
आदमी हूं !
**राजेश उत्सा्ही (2000 की किसी तारीख को)
यह कविता पुरानी है।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता लिखी है आपने ।
जवाब देंहटाएंनाम जैसा उत्साह बनाए रखें ।
मेरे ब्लोग पर नज़र डालें ।
आपकी कविता को देख कर लगता है आप बहुत सुलझे हुये व्यक्ति हैं.
जवाब देंहटाएंबड़ा सुन्दर ब्ळॉग है आपका. बधाई आपको.
आपका ही सस्नेह
चन्दर मेहेर
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is tap ko bachaye rakhiye.swagat.
जवाब देंहटाएंमन
जवाब देंहटाएंआदमी का
पालतू पशु है
दिन-दिन भर
करके आवारागर्दी
पहुंचता है खूंटे पर
ताजुब्ब
न करें कि
मैं भी आखिर
आदमी हूं !
मन का बहुत सुन्दर और यथार्थ वर्णन किया है आपने...!
--
शुभेच्छु
प्रबल प्रताप सिंह
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जवाब देंहटाएंACHCHHI PRASTOOTI. @ UDAY. TAMHANEY.+BHOPAL.MOBI.9200184289
जवाब देंहटाएंमन का कहना मत टालो...इसको खूंटे में न डालो...यही तो स्पेस है...जहाँ अपनी मर्ज़ी चलती है...
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