शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

वह औरत

जब मैंने लिखना शुरू किया तो इस तरह की कविताएं भी लिखीं। तब यह बताने वाला कोई नहीं होता था, लिखी गई कविता का मजबूत पक्ष कौन-सा है और कमजोर कौन-सा। यह कविता मैंने मशहूर लघु पत्रिका ‘पहल’ में प्रकाशन के लिए भेजी,जिसे जाने-माने कथाकार ज्ञानरंजन संपादित करते थे। कविता उनकी इस टिप्‍पणी के साथ वापस लौट आई कि फिलहाल इस साल प्रकाशित होने वाले अंकों के लिए उनके पास पर्याप्‍त रचनाएं हैं, इसलिए इसका उपयोग नहीं हो पाएगा। पहल के साल भर में चार अंक निकलते थे। मैंने मान लिया कि मेरी कविता पहल में छपने योग्‍य है। मैंने साल भर इंतजार किया और फिर ज्ञानरंजन जी को उनकी बात याद दिलाते हुए अपनी यह कविता भेज दी। इस बार उन्‍होंने कविता के मजबूत और कमजोर पक्ष बताते हुए कविता को लौटा दिया। इस पर मेरे और उनके बीच छह माह तक लम्‍बा पत्र-संवाद हुआ। मेरी शिकायत यही थी कि यह बात वे साल भर पहले भी कह सकते थे। अगर मैं दुबारा कविता नहीं भेजता तो मुझे अपनी कविता के बारे में उनकी महत्‍वपूर्ण राय पता ही नहीं चलती। उनकी राय और मेरे तर्क क्‍या थे यह सब पत्रों में मेरे पास सुरक्षित है। कभी मौका हुआ तो उसकी चर्चा करुंगा।

फिलहाल आप क्‍या कहते हैं-

वह
पत्‍थर तौडती औरत
उस ठेकेदार का
सिर क्‍यों नहीं फोड़ देती
जो देखता है उसे गिरी हुई नजरों से

पूछना चाहता हूं
अचानक मेरे पूछने से पहले ही
उसकी आंखें बोल उठती हैं
बेटा
आखिर तुम किसलिए हो

अचकचाकर
मैं उसे देखता हूं
मुझे वह औरत
अपनी मां नजर आने लगती है

और मैं एक बेटे
का कर्त्‍तव्‍य निभाने के लिए
कृत संकल्‍प हो उठता हूं

अपने सीने में
ताजी लम्‍बी सांस भरकर,
आंखों में खून का
सागर लहराते हुए
अपने मुंह का सारा थूक इकट्ठा कर
बंधी मुट्ठियों को सख्‍त करते हुए
दांतों को एक-दूसरे में
धंसाने की कोशिश करता हुआ
सिगरेट का धुआं उड़ा रहे
उस ठेकेदार की ओर बढ़ता हूं

पर शायद,
उसकी घाघ दृष्टि
मेरा अभिप्राय जान जाती है
मेरा हाथ
उसकी गर्दन तक पहुंचे

उससे पहले ही
चार सण्‍ड, मुसण्‍ड गुण्‍डे
मुझे उठाकर आकाश में
उछाल देते हैं

सारी पृथ्‍वी
घूमने लगती है
वह औरत
मुझे भारत मां नजर आने लगती है

जो आजादी के
तीन दशक बाद भी
अव्‍यवस्‍था, अराजकता, भ्रष्‍टाचार ,
अवसरवाद, सत्‍ता और स्‍वार्थ के ठेकेदारों के चुंगल से
मुक्‍त नहीं हो पाई है

और अपनी बेडि़यों
को तोड़ने का असफल प्रयास करते हुए
अपने बेटों से उनका
कर्त्‍तव्‍य पूछती है

मुझ जैसे उसके कई बेटे
अपने कर्त्‍तव्‍य को‍ निभाने के लिए
आगे बढ़ते हैं
पर इन ठेकेदारों तक
पहुंचने से पहले ही
उन्‍हें आकाश में उछाल दिया जाता है
हमेशा के लिए
हमेशा हमेशा के लिए। 
                    0 राजेश उत्‍साही 

(सागर मप्र से निकलने वाले एक साप्‍ताहिक अखबार ‘गौर दर्शन’ के 1983 के गणतंत्र विशेषांक में प्रकाशित)

29 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना ..
    समाज और हालात का सही चित्रण.

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  2. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।
    विजयादशमी की बधाई एवं शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  3. एक साथ मदर इण्डिया से लेकर त्रिशूल तक का दृश्य आँखों के सामने से गुज़र गया और लगा कि भारत माता पुकार पुकार कर अपनी औलाद से कह रही है कि मैं तुझे दूध न बख्शूंगी तुझे याद रहे. आज तो माँ की लुटती अस्मत पर आँख मूंदे उसके बेटे इसी मुग़ालते में ख़ुश हैं कि जो चीर हरण माँ का हो रहा है उसके नेपथ्य में चलने वाला संगीत और रोशनी कितनी रंगीन है!!

    जवाब देंहटाएं
  4. उस्‍ताद जी का स्‍वागत है। पर आपसे एक निवेदन है। नई शिक्षा नीति में जोर इस बात पर है कि उत्‍सादों को भी अपने तरीके में बदलाव लाना होगा। केवल अंक देने से काम नहीं चलेगा। बल्कि अंकों का महत्‍व ही नहीं है। तो उस्‍ताद जी आपका यह तरीका भावपूर्ण है,सुंदर है,सशक्‍त है जैसी टिप्‍पणियों से बहुत अलग नहीं है। और हर ब्‍लाग पर अगर आप इसी तरह अंक बांटते रहे तो कुछ दिनों बाद आपके ये अंक भी अपना महत्‍व खो बैठेंगे। इसलिए इस छात्र का निवेदन है कि भले ही संक्षिप्‍त में कहें, पर यह जरूर कहें कि आपको पोस्‍ट में क्‍या बात अच्‍छी लगी और क्‍या नहीं।

    जवाब देंहटाएं
  5. विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें।

    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (18/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  6. .

    राजेश जी,

    बहुत ही सुन्दर और सार्थक कविता। बेहद पसंद आई।

    बधाई एवं आभार।

    .

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  7. उस्ताद जी को मैंने अपनी टिप्पणी मेल से भेजी थी। उन्होंने भी मेल से जवाब भेजा। पर बात जिस तरह से आगे बढ़ी,मुझे लगा कि इसे यहां सबके साथ बांटना चाहिए।

    @उस्ताद जी ने कहा-
    राजेश जी आपकी बात अच्छी लगी
    बात सही भी है किन्तु
    व्यवहारिक रूप से संभव नहीं है !
    इतनी सारी पोस्ट पर जाकर क्या विवेचना करना संभव है ?

    खैर जाने दीजिये
    अब मैं आपकी रचना की बात करता हूँ
    आपने रचना की प्रारम्भिक चार पंक्तियाँ बेहद अच्छी कहीं !
    किसी का भी ध्यान आकर्षित करने के लिए पर्याप्त हैं
    लेकिन उसके बाद की पूरी रचना सतही है
    यूँ लगता है मानो संवेदना की उगाही की गयी हो
    मतलब
    संवेदना चंदे में जबरिया मांगी गयी हो

    आपने भूमिका में ज्ञान रंजन जी की का जिक्र किया है
    आपसे अत्यंत विनम्र आग्रह है कि कृपया उनकी भी रचनाएं पढ़ें !
    मेरे अराध्य रहे हैं ...........इत्तिफाक से मुझे भली-भांति जानते भी हैं !

    आखिर में इतना ही कहना चाहूँगा कि आपमें रचनाकार के गुण तो हैं बस खोजना आपकी अपनी जिम्मेदारी है !

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  8. @मैंने उन्हें लिखा-
    उस्ताद जी अगर यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है,तो फिर आप यह निर्णयात्महक टिप्पणियां क्यों कर रहे हैं।

    उस्ताद जी आप भूल रहे हैं कि वह 1983 में लिखी गई कविता है। और जो आपके आराध्य हैं उनके बारे में भी आप जानते होंगे कि वे कविताएं नहीं लिखते हैं।

    आपकी जानकारी के लिए कि पहल पत्रिका का मैं 15 वें अंक से अंतिम अंक तक ग्राहक रहा हूं।

    और यह भी कि ज्ञानरंजन जी मुझसे भी भलीभांति परिचित हैं। मैं जिस चकमक पत्रिका के संपादन से जुड़ा था,उसके 100 अंक पूरे होने पर उन्हों ने चकमक पर एक समीक्षात्मयक आलेख प्रकाशित किया था। वह लेख लिखवाने की जिम्मेदारी भी उन्होंने मुझे ही दी थी।

    शुक्रिया की आपको मुझमें रचनाकार के गुण नजर आए।

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  9. @उस्ताद जी ने जवाब दिया-
    प्रिय राजेश जी
    मैंने आपसे कब कहा कि ज्ञान रंजन जी कविता लिखते रहे हैं ???

    रचना गद्य अथवा पद्य में हो उसका एक विशेष गुण धर्म होता है
    एक प्रवाह होता है
    उफ्फ्फ
    मैं भी कहाँ उलझ गया
    आपको मेरा मूल्यांकन न भाया हो तो आप स्वतंत्र हैं कि उसको मिटा दें!

    @मैंने उन्हें लिखा-
    कैसे उस्ताद हैं आप। इतनी जल्दी घबरा गए। आपने नहीं कहा । लेकिन मेरी कविता की समीक्षा के बाद यह सलाह देना कि ज्ञानरंजन जी की रचनाएं पढिए,उससे तो ऐसा ही लगता है कि आप कह रहे हैं कि उनकी कविताएं पढिए।

    यहां भाने या न भाने का सवाल नहीं है। विमर्श का सवाल है।

    मैंने उस्ताद जी से यह निवेदन भी किया है कि अच्छा हो वे यह छद्म नाम छोड़कर अपने असली नाम से रूबरू हों।

    जवाब देंहटाएं
  10. आदरणीया राजेश जी, प्रणाम ! आपकी रचना के भाव बेहद अच्छे और स्तुत्य है ! मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है कि जो रचना अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जाल पत्रिका में छपी वही रचना एक बार एक अन्य प्रतिष्ठित पत्रिका द्वारा ये कह कर नकार दिया कि ये कोरा वर्णन है...कविता भेजिए...! इस सन्दर्भ में मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि गध्य कविता, जो कि नई कविता की श्रेणी में रखी जाती है, उसमे लेखक अपने विचार, द्वंद्व, सामाजिक प्रदूषण, और प्रतिकारात्मक अभिव्यक्ति अपने-अपने नज़रिए और लेखन क्षमता से करता है.. और आपने भी की.... जो कि मुकम्मल तौर पर की. मैं एक बात यहाँ कहना चाहता हूँ कि अगर ये रचना सतही है तो फिर गहराई का ज्ञान भी हमे दें, ताकि हम उस गहरे को भी जान सकें..सिर्फ क्लिष्ट रचनाएँ क्या गहरी होती हैं.. ! जो सहज दिलो-दिमाग में उतर कर सोचने पर मजबूर करे, मेरे विचार से वो रचना अपने आपमें परिपूर्ण होती है. हाँ ये बात आंशिक तौर पर मान सकते हैं कि शिल्प का अपना स्थान है. पर जहां भाव प्रबल हों, वहाँ शिल्प गौण ही रहता है..अंकित मूल्य और वास्तविक मूल्य में अगर वास्तविक मूल्य अधिक हो तो एक कागज़ का टुकड़ा भी १००० रुपये के मूल्य का होता है..ठीक वैसे ही आपकी रचना का वास्तविक मूल्य अंकित मूल्य (शायद यहाँ श्रीमान उस्ताद जी ने उसी की और इशारा किया है) से कही अधिक है जो कि रचना का भाव पक्ष है..! बहरहाल आपकी रचना एक सफल रचना की श्रेणी में ही आती है...बधाई..!

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  11. @उस्ताद जी! आपकी उपर्युक्त बातों पर कुछ कहने से पहले सिर्फ एक छोटा सा निवेदन करना चाहूँगा..कि आपतो उस्ताद हैं..पर किस तरह के? जरा सामने तो आओ छलिये...छुप-छुप छलने में क्या राज़ है...! अपनी आत्मा की आवाज़ तो सुना दी..अब अपना दीदार भी करवावें..तो फिर कुछ सोचें..! वैसे आप ने तो गुड-गोबर सब एक समान कर दिया..! सिर्फ लास्ट आपके लिए खास..with bold and italik and underline कि "उस्ताद जी,, लघुता में ही गुरता छिपी होती है..निंदा भी तब तक कचरे का ढेर ही होती है...जब तक वो निंदा सार्थक ना हो..वर्ना उस्ताद जी.. यहाँ उस्तादों के उस्ताद भी बहुत हैं...! आपने कीचड़ देखा..वो नज़रें पैदा कीजिये कि उस कीचड़ में कमल भी नज़र आये..! ज़रा कविता और साहित्य के परिवेश में बताएं सही तर्कों सहित कि ये रचना सतही कैसे है? और फिर अपनी गहरी अभिव्यक्ति से भी परिचय करवाईयेगा..ताकि हम सतही से गहराई तक जाना सीख सकें...और आप वाकई उस्ताद हैं..इस बात को दिल में उतार सकें..! ज़रा कविता और साहित्य के परिवेश में बताएं सही तर्कों सहित कि ये रचना सतही कैसे है? और फिर अपनी गहरी अभिव्यक्ति से भी परिचय करवाईयेगा..ताकि हम सतही से गहराई तक जान सीख सकें...आपकी उस्तादी हमे मार्गदर्शन कर सके और आप वाकई उस्ताद हैं..इस बात को दिल में उतार सकें..! बाकी आपकी सदा ही जय हो !!

    जवाब देंहटाएं
  12. प्रिय नरेन्‍द्र भाई,
    शुक्रिया आपकी टिप्‍पणी के लिए। वैसे ज्ञानरंजन जी ने कविता को नकारा नहीं था। उनका कहना था कि कविता में आक्रोश तो है पर वह अपने मुक्‍कमल अंजाम पर नहीं पहुंचता है। और कुछ बातें। जिनसे मैं सहमत भी था। मेरा विवाद या ऐतराज इस बात को लेकर था कि यह उन्‍होंने पहली बार में ही क्‍यों नहीं कहा। मैं साल भर इस मुगालते में जीता रहा कि मैं पहल में छपने योग्‍य कविता लिखने लगा हूं।

    इस बात से आप भी परिचित होंगे कि ज्ञानरंजन प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रहे हैं। प्रगतिशील लेखक संघ एक जमाने में यह कोशिश करता रहा है कि नवलेखकों को राह दिखाई जाए। ऐसे में उनके इस व्‍यवहार से मैं थोड़ा दुखी था। बाद में होशंगाबाद में 1982 में ही जब प्रगतिशील लेखक संघ की इकाई गठित हुई तो मैं उसका सचिव बना।

    बहरहाल यह देखकर अच्‍छा लगा कि आपने भी उस्‍ताद जी को सामने आने के लिए कहा है। परदे के पीछे से की गई आलोचना सचमुच कई बार मायने रखती हुई भी बेमानी हो जाती है।

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  13. उस्ताद जी! सिर्फ नम्बर देने का यह कारण कि कई पोस्ट पर जाना होता है इसलिए कहाँ तक विवेचना करें, आपकी उस्तादी को छोटा करता है. क्या इस बात का स्पष्टीकरण आवश्यक नहीं कि आपकी स्वयमघोषित जल्दबाज़ी के कारण आपके मूल्यांकन में भी अधूरापन हो सकता है. आपके मूल्यांकन से किसी को ऐतराज़ नहीं हो सकता है, किंतु इसका कारण सर्वथा अनुचित है.
    छिपे रहकर वार करने वाले को दुनिया आज राम नहीं मान सकती. या फिर इशारों में रणनीति बनाने वाला कृष्ण हो जाए यह भी सह्य नहीं हो सकता.. यह एक खुला मंच है और मॉडरेटर भी नहीं है, स्वतंत्रता है आपको अपनी बात रखने की. अब क्या कहूँ आपसे
    कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है!!

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  14. यही है जमीनी बेपरदा हकीकत.

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  15. sach keha rahul ji..!
    rajesh ji aap accha likhte hai..humko to koi doubt nahi!

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  16. utsahi ji ko pranam,,,aapke nirdeshanusar kuch likha hai,,samay mile to jarur bataiyega,,dhanyawaad

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  17. Mother se lekar Mother India tak ki vedna ko bakhubi prastut karti aapki ye rachna/kavita

    sadhubad

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  18. ठेकेदार ...लड़ाई...उछाल...आज़ादी का अंत

    विचार के साथ लिखी भावपूर्ण रचना !!

    जवाब देंहटाएं
  19. अपने आस पास के जीवन में फ़ैली विसंगतियों और विद्रूपताओं से क्षुब्ध मन जब उसके प्रतिकार के लिए प्रयास करता है तो उसे अपमानित कर बड़ी क्रूरता से हाशिए के भी परे धकिया दिया जाता है. बेहद मार्मिक और सवेदनशील अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  20. राजेश जी बहुत अच्छी है आपकी कविता!

    और आपका उस्ताजी जी को जो निवेदन है वो एकदम सही है ..सिर्फ नंबर बत्नेसे अच्छा है वो अपने शागिर्दोको सलाह दे क्या गलत है या किस तरह से उनकी पोस्ट और बेहतर बन सकती है !

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  21. utsahi ji ,dhanyawad aapne samay diya,,agli baar yahi koshish rahegi ki aapko kuch accha pdhne ko de saku,,

    जवाब देंहटाएं
  22. 1983 के ही नहीं आज के समय में भी भाव के स्तर पर यह उल्लेखनीय कविता कही जा सकती है। अन्तर केवल यह आया है कि उन दिनों जैसा आक्रोश व्यक्त करने का समय आज नहीं है। क्या ही अच्छा होता कि आप इस कविता का इतिहास लिखने से बचते। ऐसे उस्तादों की टिप्पणियों से बच जाते जो श्रद्धा के वशीभूत लेखन और अवलोकन करते हैं, बुद्धि के वशीभूत नहीं।

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  23. nirala ji ne bhi patthar todte dekha tha aap ne bhi dekha is beech jitna badlav aaya hai aapne muqammal taur par likha hai.
    thekedar ka sar todne wale bhav acche lage
    sundar

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  24. राजेश जी ...
    कविता बहुत शशक्त और प्रभावी है .... विषय पर बार बार लिख देने से कविता औसत स्तर की नही हो जाती ..... मुझे तो कविता एक माध्यम लगती है विषय को कुछ शब्दों में प्रभावी तरीके से उठाने में ... और अगर संदेश स्पष्ट नज़र आता है तो रचना सफल है ..... बहुत कमाल का लिखा है आपने ... बधाई इस प्रस्तुति पर ...

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  25. बहुत अच्छी है कविता आपकी ........
    धन्यवाद....

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  26. अति संवेदनशील रचना...हमारी भावनाओं का ज्वार उठता है अव्यवस्थाओं और संवेदन हीनता के विरुद्ध मुठी बाँध खड़े होने का साहस और विवशता के अंतर्द्वंद की सहज अभिव्यक्ति ..सन्देश देती काब्यांजलि....
    सादर !!!

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  27. mai ustaad ji se sehmat hun. shuruwat ki kuch panktiya promising to lagi par ant tak jaate jaate ye samajh mai aane lagi ki ek haari hui kavita hai.
    haari hui kavita kyun hai .. kyunki kavita kay ant mai kavi apne antardwand se mukti nahi pa saka ya uske pass samaj se jude kuch klisth sawalo ka koi uttar nahi hai.

    isme jitni bhi samwednaye utsahi ji ne jhalkane ki koshish ki hai wo mujhe ya to ham sabne kahi na kahi dekha aur suna zaroor hai. kavita kitne bhi imandaari se kyun na likhi gayi ho padh kar laga ek purane akhbaar ki wohi purani baasi khabar padh raha hun.

    जवाब देंहटाएं

गुलमोहर के फूल आपको कैसे लगे आप बता रहे हैं न....

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