बुधवार, 2 नवंबर 2011

प्रेम : नर्मदा किनारे

।।एक।।
मेरे तुम्‍हारे
बीच का फासला
जैसे सात समन्‍दर पार की दूरी

सात समन्‍दर पार जाना
शायद
अब भी हमारी
संस्‍कृति के खिलाफ है।

।।दो।।
चुप-चुप सी
ऊपर से
अंदर-अंदर ही आंदोलित
नर्मदा 
और दूर रेत पर
जलती आग
जैसे मेरा दिल हो।

।।तीन।।
उतर आया है
पूरनमासी का चांद
नर्मदा के नीर में
प्रतिबिम्‍ब में नजर
आ रहा है तुम्‍हारा चेहरा
ठीक वहीं,
जहां काला दाग है चांद में।
0 राजेश उत्‍साही 

12 टिप्‍पणियां:

  1. निशब्द कर दिया…………तीनो ही शानदार्।

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  2. भावमय करते शब्‍दों का संगम ... ।

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  3. तीनों क्षणिकाएँ ..प्रेम को उभारने में सक्षम हैं ... सुन्दर प्रस्तुति

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  4. बहुत खूब भाई जी !
    शुभकामनायें आपको !

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  5. ऊपर की दोनो तो बहुत अच्छी लगीं..समझ में भी आ गईं। तीसरी में अटका..मन में हुआ खटका।

    जैसे कि... तुम वहां कभी नहीं हो सकती जहां चाँद में काला दाग है। फिर उलझा..काले दाग की जगह तुम हो तो अब चाँद और भी सुंदर दिखने लगा है ...यह भाव है। फिर मन ने कहा नहीं नहीं यहां तुम का अर्थ वे हैं जो नर्मदा को कलुषित कर रहे हैं। शायद अर्थ के खोज की जिज्ञासा ही कविता का सौंदर्य है।

    मेरा यह भी मानना है कि कवि कविता किसी एक अर्थ में लिखता है और पाठक उसमें कई अर्थ ढूंढ लेते हैं। वे अर्थ भी जो कवि की कल्पना में नहीं होता।

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  6. @ देवेन्‍द्र जी आपका विश्‍लेषण एकदम सही है। नर्मदा को कलुषित करने वाला भाव तो मैंने नहीं सोचा था। हां यह डर जरुर रहा कि कहीं कोई 'उन्‍हें' भी काला दाग न समझ ले। पर जैसे कि आपने ही कहा कवि कविता किसी एक अर्थ में लिखता है पाठक उसमें कई अर्थ ढूंढ लेते हैं। मैं कहूंगा वे 'अपने' अर्थ ढूंढ लेते हैं।

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  7. KAVITA ME TO PATHAK KAI ARTH DHOONDHATE HI HAI. JAISE DAAG ACHCHHE HOTE HAI. @ UDAY TAMHANEY.

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  8. राजेश जी, आपकी तीनो ही कविताओं में अद्भुत सौन्दर्य है। अभिभूत हूं। खासकर आपको कम शब्दों के इस्तेमाल से, कमाल ये कि कोई फतवा नहीं...एक आंतरिक रिदम तो है ही। सिर्फ वाह कह कर अपने मन की अथाह प्रशंसाभाव को प्रकट नही चाहता।

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गुलमोहर के फूल आपको कैसे लगे आप बता रहे हैं न....

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