'हमकलम' में इस कविता के लिए रेखांकन :कैरन हैडॉक |
छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्सटास की चादर के
दो-दो छोटे टुकड़े
फंसाकर
फंसाकर
उंगलियों के बीच
बजाता है छोकरा
गाता है गीत
इकट्ठा करता है मजमा
मजमा
सुनता है
छोकरे के बचपन से
जवानी के गीत
और उसकी आने वाली जवानी को
बना देता है बुढ़ापा
छोकरा
गाता है रखकर कलेजा
गले में
दो सांप लहराते हैं
उसके गले में
छोकरे की आंख में
होता है
दो रोटियों का आकाश और
एक कप चाय का गहरा समुद्र
छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
बजाता है छोकरा
गाता है गीत
इकट्ठा करता है मजमा
मजमा
सुनता है
छोकरे के बचपन से
जवानी के गीत
और उसकी आने वाली जवानी को
बना देता है बुढ़ापा
छोकरा
गाता है रखकर कलेजा
गले में
दो सांप लहराते हैं
उसके गले में
छोकरे की आंख में
होता है
दो रोटियों का आकाश और
एक कप चाय का गहरा समुद्र
छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
0 राजेश उत्साही
दो रोटी के लिए पता नहीं क्या-क्या करना पड़ता है। अच्छी रचना, बधाई।
जवाब देंहटाएंये दो रोटियों का जुगाड ही सब कुछ करा लेता है………बेहद पैनी दृष्टि ।
जवाब देंहटाएंराजेश जी
जवाब देंहटाएंआपकी इस लाजवाब रचना को पढ़ कर मुझे एक बहुत पुरानी फिल्म "काली टोपी लाल रुमाल" का एक गीत याद आ गया...शायद आपने सुना हो यदि सुना भी है तो फिर से सुनिए/पढ़िए...
दीवाना आदमी को बनाती हैं रोटियाँ
खुद नाचती हैं सबको नचाती हैं रोटियाँ
बूढ़ा चलाए ठेले को फाकों से झूल के
बच्चा उठाए बोझ खिलौनों को भूल के
देखा न जाए जो-सो दिखाती हैं रोटियाँ
दीवाना आदमी को ...
कहता था इक फ़क़ीर कि रखना ज़रा नज़र
रोटी को आदमी ही नहीं खाते बेख़बर
अक्सर तो आदमी को खाती हैं रोटियाँ
दीवाना आदमी को ...
तुझको पते की बात बताऊँ मैं जान-ए-मन
क्यूँ चाँद पर पहुँचने की इन्सां को है लगन
इन्सां को चाँद में,नज़र आती हैं रोटियाँ
दीवाना आदमी को ...
नीरज
हाँ यही दो रोटियां तो हैं, जो पता नहीं क्या क्या करवा लेती हैं. किसी के पास कुत्तों के लिए महंगे व्यंजन होते हैं और कहीं बच्चों के लिए दो रोटी जुटा नहीं पाते और फिर वही बच्चे दो रोटियां के लिए तमाशा बने तमाशा करते हैं .
जवाब देंहटाएं"chhokre ki aankh me hota hai do rotiyon ka aakash
जवाब देंहटाएंaur ek cup chai ka gahra samudra"
rachnakar ki rachna yahin pahunchkar to sarthak ho pati hai.
बाऊ जी,
जवाब देंहटाएंनमस्ते!
पिछली बार जब मेरठ गया था, तो ट्रेन में इसी तरह दो छोटे-छोटे बच्चे पत्थर के टुकड़े की खनक और ढोलक की थाप पर पुराने फ़िल्मी गीत सुना रहे थे. मैंने उन्हें कुछ पैसे भी दिए. अब कुछ सही नहीं पता के वो इनाम था या दया थी...
आप कभी-कभी परेशां कर देते हैं.
आशीष
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जवाब देंहटाएंआहत कर देता अहसास
जवाब देंहटाएंएक संवेदनशील रचना…
जवाब देंहटाएंएस्बेस्टस के दो टुकड़ों से दो रोटी तक जाती कविता,
जवाब देंहटाएंशब्दों के ताने-बाने से क्या कया हाल सुनाती कविता।
आपकी छोकरा कवितायें जीवंत दृश्य प्रस्तुत कर रही हैं।
बधाई।
दो रोटियों की ही तो सारी बात है ..संवेदनशील रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति. छोकरा-३ पढ़ने ने सिरीज़ की बाकी दो कविताओं को पढ़ने को मजबूर कर दिया. तीनों कविताएँ कवि-हृदय का स्पर्श कराती हुईं. कविता की भूमिका भी पढ़कर मज़ा आया. बधाई.
जवाब देंहटाएंराजेश जी, बेहद भावपूर्ण ...जिंदगी है आदमी को कई रूप दिखलाती है अगर दुनिया में रहना है और पेट भरना है तो कुछ ना कुछ करना पड़ेगा कुछ ऐसे ही यहाँ चल रहा है...बड़ी संजीदगी से दुनिया का एक सच प्रस्तुत किया आपने..बढ़िया रचना के लिए आभार
जवाब देंहटाएंdo rotiyon ka aakash ... chhokre kee himmat banti hai
जवाब देंहटाएंAsbustus ki tukro ke bich fanshi jindagi......
जवाब देंहटाएंbadi pyari bimb dikhayee aapne!!
bahut hi sundar rachna he man ko bhagai our chhokre me apne aap ko bhi pata hu kyoki kabhi kabhi roti ke liye me apne muliyo se hat kar bhi kaam karta hu par roti se badakar bhuke liye kya ho sakta he
जवाब देंहटाएंराजेश भाई आपकी "छोकरा" कविता अस्सी के दशक में जो देश में हिंदी कविता में आम आदमी की संवेदना का स्वर था वही मुखरित हो रहा है.. यह कविता आपको उस समय के अग्रणी जनवादी कवियों की कतार में ला खड़ा करती है.. कौन कहाँ है आज यह अलग बात है लेकिन आपकी कविता तो वहां की जरुर है.. मंगलेश डबराल जी की एक कविता आपके तीनो छोकराओं के लिए :
जवाब देंहटाएंगुमशुदा
शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में
उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर
अब भी चिपके दिखते हैं
जो कई बरस पहले दस बारह साल की उम्र में
बिना बताए घरों से निकले थे
पोस्टरों के अनुसार उनका क़द मँझोला है
रंग गोरा नहीं गेहुँआ या साँवला है
हवाई चप्पल पहने हैं
चेहरे पर किसी चोट का निशान है
और उनकी माँएँ उनके बगै़र रोती रह्ती हैं
पोस्टरों के अन्त में यह आश्वासन भी रहता है
कि लापता की ख़बर देने वाले को मिलेगा
यथासंभव उचित ईनाम
तब भी वे किसी की पहचान में नहीं आते
पोस्टरों में छपी धुँधँली तस्वीरों से
उनका हुलिया नहीं मिलता
उनकी शुरुआती उदासी पर
अब तकलीफ़ें झेलने की ताब है
शहर के मौसम के हिसाब से बदलते गए हैं उनके चेहरे
कम खाते कम सोते कम बोलते
लगातार अपने पते बदलते
सरल और कठिन दिनों को एक जैसा बिताते
अब वे एक दूसरी ही दुनिया में हैं
कुछ कुतूहल के साथ
अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखते हुए
जिन्हें उनके माता पिता जब तब छ्पवाते रहते हैं
जिनमें अब भी दस या बारह
लिखी होती है उनकी उम्र ।
नीले आकाश में गहराता दो रोटियों का स्वप्न उस छोकरे को देता है प्रेरणा जि़न्दगी में अपने हुनर से चंद पैसों को कमाने की।
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता।
दीपाली
अक्सर बचपन में न जाने कितनी बार ऐसी छोकरों से मुलाक़ात होती है ... पर आपने उनके दर्द को जिया है इस रचना में ... बहुत खूब राजेश जी ...
जवाब देंहटाएंapne aas-paas jab bhi is tarah se do roti ke liye mashkat karte log dikhte hain to sach mein jee bhar aata hai... aapne bahut hi maarmik jewant chitran prastut kiya hai..aabhar
जवाब देंहटाएंहाथ में दो ठीकरे लिए गीत बिखेरते वतावरण में जिनमें सुर कच्चे हों, करुणा सच्ची होती है... ये दो ठीकरे, दो पैसे मिलने की खुशी और दो वक़्त की रोटी का दर्द है, दो पाट हैं पीसते हुए उस छोकरे को... बड़े भाई, ये छोकरा की Trilogy एक पारखी नज़र का सम्वाद है! अद्भुत!!
जवाब देंहटाएंChhaokra kavita k teeno rup aaj dekhe.. marmsparshi kavitayein..
जवाब देंहटाएंब्लॉग जगत में जहाँ लोगों के महबूब बिछड़ गए हों, या उनका खुदा रूठ गया हो, वहां आपकी छोकरा श्रृंखला सुखद बयार है| कविता की सामाजिक जिम्मेदारियों की ओर लोगों का ध्यान जाए| वे सिर्फ अपने टूटे सपनों, अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ, या अपनी उदासी का पहाड़ लोगों पर न डाले, बल्कि एक जरूरी सामाजिक बदलाव की कोशिश करें, आपकी कविताएं इस सिलसिले में काफी महत्वपूर्ण हैं|
जवाब देंहटाएंछोकरा श्रृंखला के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
सुन्दर रचना.. दो रोटी का आसमान और चाय का समुन्दर .. बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंयह वह संवेदना है जो कविता में आती है तो इस सडे गले तंत्र के प्रति वितृष्णा पैदा होती है कि बचपन रोटी की तलाश के लिये भटक रहा है।
जवाब देंहटाएंमन को बेचैन करती रचना !बेहद मर्मस्पर्शी ! आभार !
जवाब देंहटाएंजीवन का करुण संगीत.
जवाब देंहटाएंछोकरा तीन...पीड़ित बचपन का मार्मिक चित्रण। मन को छू गया।
जवाब देंहटाएंबहुत ही संवेदनशील रचना है ..इस तरह से लिखी है कि पूरा दृश्य चित्रित हो गया ....
जवाब देंहटाएंछोकरा-१, २, ३ कविता भारत के उस हिस्से की कविता है जहाँ रौशनी नहीं पहुंची है. यह दृश्य बहुत आम है लेकिन संवेदना विलक्षण. कविता ह्रदय को छूती नहीं है बल्कि बेधती है... हमारे आसपास ऐसे दृश्य प्रायः ही उभरते हैं लेकिन कहाँ झकझोर पाते हैं हमें... बढ़ते बाजारवाद ने जहाँ हमें असंवेदनशील बना दिया है.. यह कविता पीछे मुड़कर देखने के लिए प्रेरित करती है कि देखिये कौन पीछे छुट गया है.. काश यह छोकरा हमारे साथ भी चला होता..
जवाब देंहटाएंमार्मिक अभिव्यक्ति ...दिल को भा गयी
जवाब देंहटाएंकभी चलते -चलते पर भी दर्शन दें ...आपका स्वागत है
बचपन का यह रूप ह्रदय को रुला देता है. एक गंभीर रचना. समाज से सवाल करती हुई . शुभकामना .
जवाब देंहटाएंराजेश जी... कितने गहरे भाव... कितनी गहरी रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
गहन एवं मर्मस्पर्शी
जवाब देंहटाएंआपने तो छोकरे का वास्तविक चित्रण कर डाला ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंयह कविता आपके संवेदनशील कवि हृदय का भी बोध कराती हैं।
जवाब देंहटाएं...कविता अत्यंत प्रभावशाली है...मर्मस्पर्शी।
"समस हिंदी" ब्लॉग की तरफ से सभी मित्रो और पाठको को
जवाब देंहटाएं"मेर्री क्रिसमस" की बहुत बहुत शुभकामनाये !
()”"”() ,*
( ‘o’ ) ,***
=(,,)=(”‘)<-***
(”"),,,(”") “**
Roses 4 u…
MERRY CHRISTMAS to U…
मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है
आपकी रचना वाकई तारीफ के काबिल है .
जवाब देंहटाएं* किसी ने मुझसे पूछा क्या बढ़ते हुए भ्रस्टाचार पर नियंत्रण लाया जा सकता है ?
हाँ ! क्यों नहीं !
कोई भी आदमी भ्रस्टाचारी क्यों बनता है? पहले इसके कारण को जानना पड़ेगा.
सुख वैभव की परम इच्छा ही आदमी को कपट भ्रस्टाचार की ओर ले जाने का कारण है.
इसमें भी एक अच्छी बात है.
अमुक व्यक्ति को सुख पाने की इच्छा है ?
सुख पाने कि इच्छा करना गलत नहीं.
पर गलत यहाँ हो रहा है कि सुख क्या है उसकी अनुभूति क्या है वास्तव में वो व्यक्ति जान नहीं पाया.
सुख की वास्विक अनुभूति उसे करा देने से, उस व्यक्ति के जीवन में, उसी तरह परिवर्तन आ सकता है. जैसे अंगुलिमाल और बाल्मीकि के जीवन में आया था.
आज भी ठाकुर जी के पास, ऐसे अनगिनत अंगुलीमॉल हैं, जिन्होंने अपने अपराधी जीवन को, उनके प्रेम और स्नेह भरी दृष्टी पाकर, न केवल अच्छा बनाया, बल्कि वे आज अनेकोनेक व्यक्तियों के मंगल के लिए चल पा रहे हैं.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंRajesh ji,
जवाब देंहटाएंBahut hi prabhavshali aur sashakt kavita...bar bar padhne ka man hua.....
आज ही यह छोकरा श्रंखला पढ़ी, और नीरज जी से शत प्रतिशत सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंऐसा लिखने के लिए आपको बहुत आभार।
बहुत दिलसे लखा है ..भाव पूर्ण रचना आभार
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