शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

बापू के नाम चार कविताएं

मैंने एक चलन देखा है। हममें से अधिकांश बरसाती मेंढकों की तरह किसी भी दिवस के आते ही टर्राने लगते हैं,वैसे चाहे उस विषय पर कभी न कुछ कहते हों और न सोचते हों। हमने हर चीज के लिए एक दिन तय कर लिया है, हम बस केवल उस एक दिन सारा चिंतन करके अपने कर्तव्‍य की इतिश्री समझ लेते हैं। मुझे पता है मेरी यह बात पढ़कर बहुत-सों की भौहें तन जाएंगी और वे मुझ पर लानत भेजने लगेंगे। पर मैं भी क्‍या करूं। आज गांधी बब्‍बा का दिन है और वे तो सच बोलने के लिए ही कहते थे न। तो मुझ से रहा नहीं जा रहा। अब आज तो कम से कम झेल ही लीजिए। मौसम का साथ देते हुए मैंने भी चार कविताएं टर्रा दी हैं।

-एक-
आज सुबह से
मैं बापू को ढूंढ रहा था
कि वे मिल जाएं कहीं
तो मैं उन्‍हें जन्‍मदिन की बधाई दे दूं
क्‍योंकि दो दिन पहले ही मुझे इस बात का
कुछ कुछ विश्‍वास हुआ 
कि सचमुच
महात्‍मा इस देश में ही जन्‍मे थे

दो दिन पहले 
एक रूका हुआ
फैसला आया है
उस सवाल पर जो बापू
के जाते ही खड़ा हो गया था

यह अलग बात है कि
बहस जारी है
सही है या गलत
कानून की देवी क्‍या सचमुच अंधी है
आस्‍था का पलड़ा भारी है या सबूतों का
फैसला इतिहास का हुआ है
या कानून का
फैसला अदालत में हुआ है या संसद में
फैसला न्‍याय का है या राजनीति का
यह फैसला है या समझौता

मैं न तो राजनीतिज्ञ हूं, न इतिहासकार हूं, न कानूनविद्
और न धर्मपरायण व्‍यक्ति
हां, इस देश का एक
साधारण नागरिक हूं

फिलहाल संतुष्‍ट हूं कि
मैं अपने मित्र के साथ
आंख मिलाकर बात कर सकता हूं।


-दो-
महात्‍मा
मुझे एमजी रोड पर
भी नहीं मिले और न मिले
एमजी चौराहे पर
महात्‍मा गांधी सार्वजनिक भवन में भी वे नजर नहीं आए
हां उनका बुत जरूर वहां था

फूलों की दो-तीन मालाएं उनके गले में पड़ी थीं
कुछ लोग थोड़ी देर पहले ही
रघुपति राघव राजाराम गाकर
पास के बार-कम-रेस्‍टोरेंट में गए थे

एक कौआ उनकी नाक पर बैठकर
अपनी चोंच साफ कर रहा था।

-तीन-
मुझे
विश्‍वस्‍त सूत्रों से
पता चला है कि
असल में
महात्‍मा रिचर्ड एटनबरो की
फिल्‍म में भूमिका करने के बाद से गायब हैं
 
कुछ समय पहले
‘लगे रहो मुन्‍ना भाई’ फिल्‍म में
संजयदत्‍त को दिखाई दिए थे

और फिर ‘मैंने गांधी को नहीं मारा ’
फिल्‍म में यह कहने आए थे कि
सचमुच मुझे इन्‍होंने क्‍या किसी ने नहीं मारा
मैं तो अपनी ही मौत मर गया हूं

यकीन न हो तो 
सरकारी स्‍कूल के
बच्‍चों की पाठ्यपुस्‍तकों के तीसरे या चौथे आवरण पर
मेरी तस्‍वीर देख सकते हो
संदेश के साथ।

-चार-
बच्‍चे
मुझे नाम से जानते हैं
और शायद काम से भी
वे जानते हैं कि आज के समय में
वे महात्‍मा नहीं बन सकते
इसलिए बस मेरी जीवनी पढ़ते हैं
परीक्षा में निबंध लिखने के लिए या 
फिर करोड़‍पति इनाम जी‍तने के‍ लिए

बच्‍चे भी आखिर क्‍या करें
गांधी! गांधी! गांधी! गांधी! गांधी!
गांधी के नाम का इतना चर्चा है
इस देश में कि
बच्‍चों को समझ ही नहीं आता
किस गांधी की बात हो रही है

बच्‍चों की बात छोडि़ए
क्‍या आपको समझ आता है?
                                 0 राजेश उत्‍साही
(मित्रो मुझे पता है मेरी यह अभिव्‍यक्ति बहुत सुंदर है, सटीक है,सशक्‍त है,मुखर है,भावपूर्ण है,मार्मिक है आदि आदि है। इसलिए इन विशेषणों का उपयोग करके अपने शब्‍द जाया न करें। कुछ और भी कहें अपनी टिप्‍पणी में। शुक्रिया।)

53 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया .
    कृपया इसे भी पढ़े -http://www.ashokbajaj.com/2010/10/blog-post_03.html

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  2. राजेश जी,

    आज के सन्दर्भ में गाँधी के नाम का जो प्रयोग दिख रहा है. वह सिर्फ किताबों और लेखों तक सीमित है. उसको वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखने की फुरसत किसे है? उनके सारे आदर्श उनके साथ ही चले गए क्योंकि आज अहिंसा नहीं बल्कि अहिन्सकों पर भी सिरफिरों को गोलियां और बम कभी रहम नहीं करते . इस लिए अब सब कुछ कालातीत हो चुका है. अनशन, सत्याग्रह भी बहुतबलियों के बाद ही सफल हुए थे और आज तो ये अपनों के बीच भी अपने मूल्य खो चुके हैं.

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  3. बाऊ जी,
    नमस्ते!
    शुक्रिया के लिंक भेजा.
    एक बात जो मुझे आपकी हमेशा पसंद आती है वो ये के आप सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात कह हर हाथ झाड लेते हैं.... कोई उपदेश नहीं!
    बुद्धिजीवी होने पर भी.... कोई भरकम शब्दों का प्रयोग नहीं!
    अब गांधी:
    जब उन्हें पढ़ा तो उन्हें जाना, नहीं तो ये ही सुनता आया था के उनके चलते देश का बटवारा हुआ, के वो हिन्दू विरोधी थे वगेहरा.... वगेहरा....
    पढ़ा तो जाना के बड़े दिलचस्प आदमी थे! कर के सीखते थे.....
    इनफैक्ट मेरे ब्लॉग का नाम उनकी आत्मकथा माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ से ही प्रेरित है, ये बात और है के मैं बातें वाहियात करता हूँ!
    आपकी चोट करती रचनाओं के लिए आभार!
    आशीष

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  4. गांधी का अच्छा विश्लेषण है ...फैसला जिस पर आप दोस्त से आँख मिला कर बात कर सकते हैं ...मैं यह सोच रही हूँ कि क्या वाकई आज के बंटवारे पर शांति कायम रहेगी ?
    हर सड़क या चौराहा गांधी के नाम पर लेकिन बापू कहीं नहीं ...
    गांधी का नाम फिल्म वालों ने भी खूब भुनाया ....
    और आज इतने नाम हो गए हैं गांधी कि जीवनी पढ़ कर ही कम से कम जान लें कि महात्मा गांधी कौन थे ...बहुत उत्तेजना पूर्ण रचनाएँ

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  5. राजेश, जिन लोगों के ओर तुम्हारा संकेत है, उनके अलावा भी बहुत लोग हैं जो गान्धी को समझते हैं, पहचानते हैं और उनके जीवन से सीखते हैं. शायद वे इन जयंतियों और पुण्यतिथियों के कार्यक्रमों में शिरकत करते हुए न दिखें, महात्मा को श्रद्धांजलि देने वालों की कतार में न दिखें, पर कोशिश करो तो वे दिखेंगे महात्मा की तरह ही जीवन जीते हुए, उन मूल्यों को आत्मसात करने के लिये संघर्ष करते हुए, जिन्हें गान्धी ने स्थापित किया था. हो सकता है, वे कम संख्या में हों लेकिन उनका होना मायने रखता है. अच्छे लोग हमेशा कम संख्या में होते हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता. उनकी ताकत, उनका बल, उनके सच के साथ होने में होता है. तुम जानते ही हो कि गान्धी भी जब चला था तो वह अकेला ही था. वह कई बार अपने निर्णॅयों में भी अकेला होता था लेकिन इस नाते वह झुकता या दबता नहीं था.

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  6. @सुभाष भाई आपकी बात से सहमत हूं। इसीलिए मेरी पहली कविता उसी गांधी को समर्पित है जो मौजूद है एक साधारणजन में।

    मैं मानता हूं कि अयोध्‍या का फैसला चाहे जैसा रहा हो,पर इस बार गांधी का आम आदमी औरों के बहकावे में नहीं आया है,इसीलिए हम चैन की सांस ले पा रहे हैं।

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि गांधी हमेशा अकेले थे और अकेले ही रहेंगे। बाकी जो चलेंगे या चल रहे हैं वे उनके पीछे ही हैं।

    गांधी को मैंने जितना समझा है वह है सच को सच की तरह ही बोलना। इसलिए मैं केवल अपने लेखन में ही नहीं व्‍याव‍हारिक जीवन में भी सच को सच की तरह ही बोलता हूं चाहे वह फिर कितना ही कड़वा क्‍यों न हो। और मुझे संतोष है कि अब तक के जीवन में मुझे इस बात पर कभी अफसोस नहीं करना पड़ा।

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  7. गाँधी! गाँधी! गाँधी! गाँधी! गाँधी! गाँधी!
    गाँधी के नाम का इतना चर्चा है
    इस देश में कि
    बच्चों को समझ ही नहीं आता
    किस गाँधी की बात हो रही है .
    ..बच्चों की छोडिये
    क्या आपको समझ आता है ...
    ....सच में गाँधी जी आदर्श, विचार की सिर्फ एक दिवसीय चर्चा में आना बेहद दुखद स्थिति है.....आज गाँधी जी का नाम तो बहुत चल रहा है देश की राजनीति से लेकर किताबों और सबसे अधिक मुद्रा के रूप में .....लेकिन यह गहन अफ़सोस की बात है कि वास्तविक गाँधी जी जहाँ-कहीं कभी-कभार ही याद आते नज़र आते है!!!!

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  8. पहली कविता में अयोध्या विवाद के वर्ष जो बापू की पुण्य तिथि के करीब था, के अतिरिक्त गाँधी से कोई साम्य न दिखा. मुख्य विषय अयोध्या का फैसला था, सो यह कविता बाकी की कविताओं से भिन्न दिखी मुझे.
    मूर्तियों पर किया गया व्यंग्य सटीक है. एक नेता जी ने जयशंकर ‘प्रसाद’ की जयंती पर एक मूर्ति लगाने की घोषणा की शहर के चौराहे पर… प्रदेश के मुख्य मंत्री की मूर्ति जिसमें नेताजी कामायनी पढते हुए दिखाए जाने वाले थे.
    राष्ट्रपिता की याद बस फिल्मों में, बच्चों की पाठ्यपुस्तक में या देश की करेंसी पर. हाँ फिल्मों से इतना तो मानना ही होगा यह एक ऐसी विभूति हैं जिनकी सामयिकता आज भी है.
    अच्छा है टर्राना आपका. अभिभूत, अद्भुत, मार्मिक, सारगर्भित, चिंतनीय, विवेकपूर्ण, व्यथित करने वाली नहीं कहूँगा.

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  9. बहुत अच्छी लगी सारी कवितायेँ! गाँधी जयंती पर बेहतरीन प्रस्तुती!

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  10. is raaste par chalakar kabhee pachhtaana naheen padega. ek chhota sa jhooth bhee har dam bechain kiye rahata hai, pata naheen kab khul jaaye, is baat ka dar bana rahata hai. dar men jeene se achchha hai jhooth se bachana. log naaraj ho jaate hain kai baar, par ve jeevan ke kisee n kisee mod par usaka mahtv samajhte jaroor hain, bhale hee sankochvash n kahen.

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  11. Adarniy Sir,
    Bapu ko itanee sookshmata aur gaharai ke sath apne dekhane aur samajhne ki koshish ki ---padh kar achchhaa laga.
    Shubhkamnayen.
    Poonam

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  12. उत्साही जी ,
    आपकी मेल मिली तो चली आई .....
    गाँधी पर आपने कुछ हट के लिखा ....
    चारों कवितायेँ बहुत ही उम्दा लगीं ....हालांकि आपने टर्राने के लिए मना कर रखा है फिर भी .......

    कुछ पंक्तियों का वर्णन अभूतपूर्व रहा .....

    @ एक कौवा उनकी नाक पर बैठकर अपनी चोंच साफ़ कर रहा था .....
    आपने तो सिर्फ चोंच साफ करते देखा ....मुझे तो बचपन की बात याद आ गयी ...हमारे स्कूल के पास ही गाँधी चौक हुआ करता था ....जहां कबूतरों ने अपना आशियाना बना लिया था ...गाँधी जी सर से लेकर पाँव तक कबूतरों की बीट से भरे रहते ...बाल मन में अक्सर जिज्ञासा होती हमारे राष्ट्रपिता की इतनी दुर्दशा क्यों .....?

    बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों के तीसरे या चौथे आवरण पर मेरी तस्वीर देख सकते हो .....खूब कहा ......!!

    अंतिम कविता को एक बार फिर देखिएगा ......
    गाँधी के नाम का इतना चर्चा है ....
    या
    गाँधी के नाम की इतनी चर्चा है ...?
    'चर्चा' स्त्रीलिंग शब्द है इसलिए इतनी होना चाहिए .....

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  13. @ हरकीरत हीरः
    चर्चा शब्द पुल्लिंग है...आपकी सहूलियत के लिएः
    हम ग़ज़ल में तेरा चर्चा नहीं होने देते.
    तेरी यादों को भी रुसवा नहीं होने देते.
    एक औरः
    कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा
    - इब्ने इंशा

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  14. आदरणीय सलिल जी ,
    शब्दकोश तो देख लेते या किसी और बुद्धिजीवी से मशवरा कर लेते ....
    चर्चा की जाती है ...., चर्चा हुई .....
    न की .....
    चर्चा किया जाता है ...चर्चा हुआ....

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  15. वंदना गुप्‍ता ने ईमेल से अपनी प्रतिक्रिया में कहा-

    agata hai rajesh ji meri tippani pahuch nahi pa rahi isliye mail kar rahi hun aap laga dena.

    अब तो सबसे पहले यही कहूँगी………सुन्दर है , सटीक है , सशक्त है, मुखर है…………………हा हा हा।

    सच मे आपकी चारों ही अभिव्यक्तियाँ सोचने को मजबूर करती हैं……………आज यही तो हाल है गांधी शब्द का……………क्योंकि अब सिर्फ़ शब्द रह गया है बाकि कोई गांधी थे इस देश मे वो सिर्फ़ एक दिन मे सिमट गया है………………कौन गांधी या उनके आदर्शों को पूछता है और सच पूछें तो कोई भी चलना भी नही चाहता आखिर कौन अपने आप को गांधी की तरह गोलियों के आगे प्रस्तुत करे आजकल तो बिना कुछ करे भी महात्मा बन जाते हैं फिर क्या जरूरत है गोली खाने की या सत्याग्रह करने की या देश के बारे मे सोचने की……………मै लिखती ही जाऊंगी और आप बोर हो जायेंगे इसलिये अब बस करती हूँ।

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  16. आपकी चौथी कविता पर कमेंट करूँगा क्योंकि वो बच्चों से जुड़ी है जो इस देश का भविष्य हैं ....
    ये सच है की आज बहुत कम लोग हैं जो गाँधी को और उसके नियमों को सही से पहचानते हैं .... पर आने वाली पीडी को हम क्या बता रहे हैं इस बात को ज़रूर सोचना चाहिए .... आज की करनी और कथनी का फ़र्क कहीं ग़लत दिशा न दे हमारी भावी पीडी को .... और इसके लिए अपने जीवन में उन बातों को आत्मसात करना चाहिए जो गाँधी जी ने कीं थीं ....

    वैसे आपने मना करने के बावजूद भी कहूँगा ... बहुत ही लाजवाब और आँखें खोलने वाला लिखा है .... मज़ा आ गया ...

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  17. बहुत ही तल्ख़ सच्चाई व्यक्त की है...इन सारी कविताओं में...गांधी जी के नाम का बस हर कोई अपने स्वार्थ के लिए उपयोग कर रहा है....उनकी बातें जीवन में उतारने की कोशिह्स किसी को गवारा नहीं.

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  18. आपके निषेधों के बाद भी टिप्‍पणियां आ रही हैं और खूब आ रही हैं. मानक रूप सेमेल और पोस्‍ट का लिंग क्‍या तय है, मुझे तो पता नहीं. कविता पर बस यही कि बापू, संबोधित होते रहें.

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  19. @हरकीरत हीरः
    इस अनपढ को अनपढ कहा होता तो मान लेता, लेकिन इब्ने इंशाँ जैसे अज़ीम शायर की तौहीन करके आपने अपनी इज़्ज़त में चार चाँद लगा लिए हैं. शब्दकोश की तो स्पेलिंग भी नहीं पता हमें, भला शब्द कहाँ देखेंगे. भाई राजेश चुप हैं तो हम भी चुप्पी साधे हैं...शायरी और शालीनता दो अलग शै हैं, पता न था.

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  20. @ राजेश उत्साही जीः
    विद्वानोंकी सलाह पर आपने अभी तक वह शब्द तब्दील नहीं किया????

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  21. bapu mil jayen to mujhe bhi kuch baaten karni hain ... ab to jaldi geet bhi nahi sunai dete bapu ke naam

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  22. राजेश जी !!! आपकी कविताओं द्वारा गाँधी जी को याद किया जाना अच्छा लगा । खड़ी बोली में लिखी सीधी कविता...बिना किसी लाग-लपेट के ।

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  23. आदरणीय राजेश भाई आपसे बात होने के बाद टिप्पणी के लिए आ रहा हूँ.. जबकि संभवतः मैं आपकी कविता का पहला पाठक था.. क्योंकि इस कविता के पोस्ट होने से पूर्व मैंने गांधी जी से ही जुडी अपनी एक कविता भेजी थी पढने को जिसे आपने लौटा दी थी की इसमें नया कुछ नहीं... लेकिन मैं मन से मजबूर हूँ.. सो पोस्ट कर दी अपने ब्लॉग पर... प्रतिष्ठित ब्लॉगर वहां नहीं पहुँचते सो लोभवश यही पोस्ट कर देता हूँ.. अपनी कविता और उसके साथ आपकी संक्षिप्त टिप्पणी...
    "हाशिये पर महात्मा "
    हे महात्मा !
    चौक चौराहों पर
    करके कब्ज़ा
    यदि सोच रहे तो तुम
    कि
    ह्रदय में वास कर रहे हो
    या फिर
    तुम प्रेरणा श्रोत हो
    नए विश्व के
    तो गलतफहमी में हो

    हाँ,
    सेमीनार और कांफ्रेंस के
    अच्छे विषय जरुर हो
    और तुम्हारी खादी
    जो अब मशीनों से
    जाती है बुनी
    हो गई है
    फैशन स्टेटमेंट

    और
    अपने सिद्धांतों व
    आम आदमी के साथ
    हाशिये पर हो
    तुम ...

    आपकी टिप्पणी थी... " लोगों को पसंद आएगी। टिप्‍पणियां आएंगी कि बहुत अच्‍छी अभिव्‍यक्ति है। बहुत सशक्‍त अभिव्‍यक्ति होगी। पर मेरी टिप्‍पाणी होगी कि इसमें नया क्‍या है। अब आप तय कर लीजिए। "

    अब आपकी कविता पर.. पहली कविता में आप गाँधी जी को ढूंढते-ढूंढते रुके हुए फैसले पर आ जाते हैं.. और संतुष्ट है कि आप अपने मित्र के साथ आँखे मिला सकते हैं.. बड़ा भटकाव है इस कविता में ... साथ ही राजनितिज्ञो कि तरह तुष्टिकरण को भी बढ़ावा दे रहे हैं आप.. गाँधी जी की तरह कहाँ निरपेक्ष रह पाए आप... दूसरी कविता भी जरा फ़िल्मी सी ही है कि माल्यार्पण के बाद लोग बार-कम-रेस्त्रा में चले गए.. जहाँ तक चोंच साफ़ करने का विम्ब है.. मैंने कहीं ना कहीं पढ़ा है मिलता जुलता विम्ब.. याद नहीं अभी.. कभी मिला तो शेयर करूँगा... तीसरी कविता में ... आप बच्चों के पाठ्यपुस्तक में गाँधी को मृत दिखा रहे हैं सन्देश के साथ.. पाठ्यपुस्तकों में हज़ार और भी चीज़ें होती हैं जिनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता.. ना ही उधर जाना चाहते हैं.. ऐसे में यदि अपने सन्देश के साथ गाँधी हैं भी तो क्या बुरा है... इतना ही काफी नहीं कि शराब बेचने वाली सरकार उस दिन को "ड्राई डे " घोषित करती है.. और अंत में कवि अपना धैर्य खो देता है और पाठकों से पूछता है.. "क्या आपको समझ में आता है" शिक्षक के तौर पर...

    ये कवितायें मेरी कविता की तरह ही महात्मा विहीन हैं... और इसमें आप एक कवि नहीं बल्कि समीक्षक की तरह कविता लिख रहे हैं...

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  24. आदरणीय उत्साही जी ,
    ब्लॉग आपका ...कवितायेँ आपकी ....मेल आपकी ....चर्चा आपकी ....
    तो जवाब आपका क्यों नहीं ....?.
    मैंने शालीनता से अपनी बात रखी थी ...अब भी अपने शब्दों पर कायम हूँ चर्चा स्त्रीलिंग शब्द है ....
    ये संस्कृत का शब्द है .... इब्ने इंशा उर्दू के शायर थे जैसे 'ज़िक्र' पुलिंग शब्द है हो सकता है उन्होंने उसी अर्थ में इसे भी पुलिंग रूप में इस्तेमाल कर लिया हो ....कोई बड़ा शायर है इसका मतलब यह नहीं कि उससे कभी गलती हुई ही न हो ...अभी हाल ही में स्वप्निल जी ने मेरी गलती निकाली और मैंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया ...मुझे नहीं लगता इसमें बुरा मानने जैसी कोई बात है ....और मुझे लगा था आप इस मामले में काफी उदार हैं ...यूँ मैं अधिकतर देख कर भी अनदेखा कर देती हूँ ....
    सलिल जी ने बिना जांच के शीघ्रता से आपकी जगह जवाब दिया ...जिसकी वजह से मुझे कुछ रुखा जवाब देना पड़ा ...सलिल जी 'चर्चा' स्त्रीलिंग ही है ...कभी उदहारण मिला तो आपको जरुर दूंगी ....किसी नज़्म या कविता का ...इन दिनों कुछ व्यस्त हूँ ....और इल्तजा है बुरा न माने .....!!

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  25. @सलिल भाई मैं चुप नहीं था और न ही मैंने चुप्पी साध रखी है। कल दोपहर से मेरे लेपटॉप में कुछ समस्या थी,इसलिए गुलमोहर पर आ रही टिप्पणियां नहीं देख पाया था। आज सुबह जब दफ्तर आया तब समस्या से निजात मिली और टिप्पणियां देख पाया। दफ्तर में आज बहुत अधिक व्यस्तता थी, इसलिए जवाब देने का समय नहीं था। घर लौटा तो सबसे पहले ‘साखी’ पर गया क्योंकि अब तक मैंने वहां कुछ नहीं कहा था। वहां आपकी टिप्पणी देखी जिसमें आपने अनपढ़ होने की बात की है ,तब मेरा माथा ठनका। और फिर आपकी दूसरी टिप्पणी देखी जिसमें आपने इब्ने इंशा का जिक्र किया है। तब गुलमोहर पर आया।

    जवाब देंहटाएं
  26. पहली बात तो यह है कि हरकीरत ‘हीर’ सही कह रही हैं कि चर्चा शब्द स्त्रीलिंग है और शब्दकोश में भी ऐसा ही लिखा है। लेकिन शब्दकोश केवल एक मात्र अंतिम संदर्भ नहीं होता है। शब्दकोश भी जन से ही आता है। (कुछ समय पहले एक ब्लांग पर ऐसी ही बहस कलम शब्द को लेकर चली थी। पुराने शब्दकोशों में कलम को पुर्लिंग बताया गया है,जबकि आज वह स्त्रीलिंग रूप में प्रचलित है। और आज के शब्दकोशों में भी उसे स्त्रीलिंग ही लिखा है।) मेरी मान्यता है कि चर्चा शब्द उन शब्दों में शुमार है जिसका उपयोग दोनों तरह से होता है। इसलिए आपकी बात भी सही है और आपने तो इस तरह के उपयोग के प्रमाण भी दे दिए हैं।

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  27. मेरी कविता में एक बहुत बारीक अंतर है जिसकी वजह से मैंने चर्चा को इस तरह से उपयोग किया है। वह यह है कि यहां केवल एक गांधी के नाम की बात नहीं हो रही है बल्कि कई गांधियों की बात हो रही है। बहुत संभव है विद्वान लोग मेरी बात से सहमत न हों। पर सबका सम्मान करते हुए भी मैं अपनी कविता में बदलाव नहीं कर रहा हूं।

    और सलिल भाई इसमें कोई दो मत नहीं है कि हमें शालीनता तो हर हाल में बरतनी ही चाहिए।

    आपकी बात का समर्थन करते हुए राहुलसिंह जी भी इशारों में ही अपनी बात कह गए हैं और सवाल भी पूछ गए हैं।

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  28. @ हरकीरत जी मेरी चुप्पी का कारण तो ऊपर मेरी टिप्पणियों में आ ही गया है। इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं कहूंगा। पर हां यह जरूर कहूंगा कि मुझे लगता है ब्लाग विमर्श की जगह है इसलिए अगर किसी के पास किसी सवाल का कोई जवाब है वह उत्तर दे ही सकता है,जरूरी नहीं है कि जिसका ब्लाग है वही जवाब दे।
    आपने कहा है कि इब्ने इंशा गलती कर सकते हैं,इसका यह मतलब नहीं है कि हम भी गलती करें। हरकीरत जी मेरा केवल इतना कहना है कि हममें से किसी को नहीं पता कि इब्ने इंशा ने यह प्रयोग गलती से किया था या जानबूझकर। इसलिए इस बात को इस तरह कहना उचित नहीं होगा।

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  29. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  30. उत्साही जी ये चर्चा मंच की कुछ टिप्पणियाँ हैं देख लें .....जहां चर्चा को स्त्रीलिंग में लिखा गया है ....
    Blogger१) Archana said...

    रंग-बिरंगी चर्चा -बढिया ......मेरी रचना को स्थान देने के लिए धन्यवाद.....
    २) 'अदा' said...

    bahut hi acchi lagi aapki charcha...
    aabhaar...!


    ३)Blogger मनोज कुमार said...

    आपकी चर्चा की शैली देख कर चमत्कृत और प्रभावित हुआ। कृपया बधाई स्वीकारें।
    ४) डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण) said...आज की चर्चा बहुत सुन्दर रही!

    ५) संजय भास्कर said...आज की चर्चा बहुत सुन्दर रही!

    ६ Rajeev Bharol said...

    बहुत ही अच्छी शैली में की गई चर्चा.

    ७) वाणी गीत said...

    नए रंग की चर्चा रंगीन लगी ...
    ८) क्षितिजा .... said...

    आपकी चर्चा बहुत पसंद आई ...
    ९) आशीष मिश्रा said...बहोत ही अच्छी चर्चा,
    १०) अनामिका की सदायें ...... said...

    बहुत अच्छी सफल चर्चा रही.

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  31. @ हरकीरत हीर और राजेश उत्साही जीः
    आधे सच की बिना पर किसी को अहमक़ का दर्ज़ा देना बेशऊरी मानी जाती है. अगर उन्होंने यह कह दिया होता कि यह हिंदी की कविता है और हिंदी में चर्चा को स्त्रीलिंग में प्रयुक्त करते हैं तो बात ख़तम थी. मैं भी सही, हरकीरत भी. लेकिन जवाब मिला
    आदरणीय सलिल जी ,
    शब्दकोश तो देख लेते या किसी और बुद्धिजीवी से मशवरा कर लेते ....
    चर्चा की जाती है ...., चर्चा हुई .....
    न की .....
    चर्चा किया जाता है ...चर्चा हुआ...
    ये क्या बात हुई भला. मैं क्यूँ किसी बुद्धिजीवि से मशविरा करूँ, जबकि मैंने इत्मिनान कर रखा है. इब्ने इंशाँ के क़द के बराबर उनमें से कोई नहीं जिनका चर्चा या जिनकी चर्चा उन्होंने की है. यकीन न हो तो किसी विद्वान बुद्धिजीवि से मशविरा कर लें. पहला शेर मेराज फ़ैज़ाबादी का था और दूसरा इब्ने इंशाँ का..मुझसे भूल हुई कि मैं ने इन मामूली शायरों पर वक़्त ज़ाया किया, दरसल उनको पढना चाहिए था जिनका ज़िक्र उनके बयान में है.
    कलम स्त्रीलिंग है हिंदी में पुल्लिंग है उर्दू में.
    चर्चा हिंदी में स्त्रीलिंग में प्रयोग होती है, उर्दू में पुल्लिंग ही है.
    पायदान शब्द पुल्लिंग है उर्दू में मगर हिंदी में स्त्रीलिंग प्रयोग होता है.
    शब्द्कोश ही देखने हों तो दोनों देखने चाहिए. संगीता दी ने लम्बे विमर्श के बाद अपनी एक कविता के एक शब्द को लेकर मुझसे कहा था कि सलिल अब तुम बताओ. इसलिए नहीं कि उनको मेरी क़ाबिलियत पर यकीन था, इसलिए कि वे मेरे तर्क से सहमत थीं. किया उन्होंने वही जो उत्साही जी ने कहा.लेकिन यह भी नहीं कहा कि मेरी बात ग़लत है. यह है बड़प्पन.
    हरकीरत जी, कलाकर बन जाना बहुत मुश्किल होता है, मगर दूसरे कलाकार का सम्मान करना विरले को ही आता है.
    बड़े भाई उत्साही जी और हरकीरत जी, आधा सच जानकर दूसरे को चुनौती नहीं देना गलत है. और भाषा का सन्यम बहुत ज़रुरी है.

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  32. @ हरकीरत जी,वैसे तो अब यह बहस खत्‍म हो गई है। मैंने भी कहा था कि चर्चा स्‍त्रीलिंग है और शब्‍दकोश में यही लिखा है। सलिल भाई ने एक कदम और आगे बढ़कर स्थिति साफ कर दी है।
    पर इस बहाने मैंने भी कुछ शोध किया और दो और मशहूर शायरी मुझे मिलीं जिसमें चर्चा को इस तरह इस्‍तेमाल किया गया है। आप भी देखें-

    सर फ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
    देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।

    करता नहीं क्यूं दूसरा कुछ बात चीत
    देखता हूं मैं जिसे वो चुप तिरी मेहफ़िल में है।

    ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार
    अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है।

    वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ
    हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है।

    खींच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उम्मीद
    आशिक़ों का आज झमघट कूचा-ए-क़ातिल में है।

    यूं खड़ा मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
    क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है।

    (अक्सर लोग इसे राम प्रसाद बिस्मिल जी की रचना बताते हैं लेकिन वास्तव में ये अज़ीमाबाद (अब पटना) के मशहूर शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी की हैं और रामप्रसाद बिस्मिल ने उनका शे'र फांसी के फंदे पर झूलने के समय कहा था। चूँकि अधिकाँश लोग इसे राम प्रसाद बिस्मिल की रचना मानते है इसलिए इस रचना को बिस्मिल के पन्ने पर रखा गया है। -- कविता कोश टीम)

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  33. और दूसरा उदाहरण परवीन शाकिर की एक ग़ज़ल के शेर से है-

    अपनी रुसवाई तेरे नाम का चर्चा देखूँ
    एक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या-क्या देखूँ

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  34. टिप्पणी पढ़ने के बाद लगा कि गांधी कहां गुम हो गए। खैर वैसे भी कवि, शायर दोनो ही शब्दों के इस्तेमाल में अपनी ही चलाते हैं। ऐसे ही हारकर लोगो ने कबीर के दोहो को भी आत्मसात कर लिया है औऱ उसे बाणी का दर्जा दिया है न कि कबीर वाणी का। मगर यही वाणी पंजाबी में जाकर बाणी के तौर पर स्थापित है। तो जाहिर है इस तरह की चर्चा या कहें विमर्श करना गलत नहीं है। मुझे लगता है कि विमर्श को विराम मिल गया होगा।

    वैसे आप लोग इस बात से सहमत होंगे कि ब्लॉग में भले ही इन बातों पर बहस नहीं हुई हो, मगर साहित्य जगत में ऐसे अनेक विर्मश हो चुके हैं और उसके बाद वर्तमान शब्द प्रयोग के नियम अस्तित्व में आए हैं, निर्धारित किए गए हैं।

    खैर उत्साही जी। आपकी कविता अच्छी लगी, इससे ही जुड़ी हुई मेरी पोस्ट भी है।

    www.boletobindas.blogspot.com

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  35. ufff!! yahan to bade aur vidwan logo ne akhara bana diya............:)
    par ham jaison ko yahin padh kar kuchh seekhne ko milta hai!!
    hamare iss vishay pe kahna to chhoti muh badi baat hogi..........:)

    jahan tak kavita ke sandarbh ki baat hai, ek sarthak kavita likhi rajesh bhaiya ne.........Mahatma gandhi sach me iss yug ke liye sirf murtiyan hi rah gayee hai...........kash ham unhe apna pate..!

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  36. ग़ुम सवालों में सभी हैं और उत्‍तर है नहीं
    तेरा चर्चा हो गया तो मेरी चर्चा हो चुकी।
    गॉंधीजी पर लौटें तो बात आती है दर्शन की और जरूरी नहीं कि दर्शन एक सा हो। जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। यही स्थिति स्‍वर्गीय मोहन दास करमचंद गॉंधी की है। ये अच्‍छा है कि उनकी स्‍पष्‍ट पहचान के लिये महात्‍मा संबोधनॉंश के रूप में प्रचलित है। हाल फिलहाल नाम देने की स्थिति में नहीं हूँ लेकिन लगभग 100 जिल्‍दों में एक संग्रह है जो ऑनलाईन भी उपलब्‍ध है, उसमें एक-एक पत्र संग्रहित है जो महात्‍मा गॉंधी ने अपने सार्वजनिक जीवनकाल में लिखा। उन पत्रों के पढ़ने के बाद आज की राजनीति ही नहीं आज के मनुष्‍य का खोखलापन भी स्‍पष्‍ट होता है।
    मैं कविताओं पर बात नहीं कर रहा हूँ, कविता तो राजेश भाई कह चुके, मैं इन कविताओं को पढ़ने के बाद के भाव की बात कर रहा हूँ।
    ऐसा लगता है जैसे महात्‍मा गॉंधी मार्ग, चौराहा, उनकी मूर्ति आदि एक समग्र व्‍यवस्‍था है गॉंधी को एक दायरे में बॉंधने की; जिसमें सभी खोकर रह जायें और कहीं उनके दर्शन तक न पहुँच जायें।
    हमारा पड़ोसी देश चीन, जिसे कट्टर कम्‍युनिस्‍ट देश माना जाता रहा है; उसने गॉंधी जी काएक सूत्र प्रकड़ लिया 'हर हाथ को काम' और निकल लिया विश्‍व में अपनी मज़बूत पहचान बनाने- और हम?
    मुझे लगता है इसके बाद कहने को नहीं सोचने को रह जाता है।

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  37. सलिल जी ,
    जरा अपनी पहली टिपण्णी पर गौर कीजियेगा ..
    जिसमें आपने साफ कहा है कि चर्चा शब्द स्त्रीलिंग नहीं पुलिंग है .....
    आपने ये नहीं कहा कि हरकीरत जी चर्चा हिंदी में स्त्रीलिंग और उर्दू में पुलिंग होता है .....
    और उत्साही जी ने शुद्ध हिंदी कि कविता में उर्दू के चर्चा शब्द का इस्तेमाल किया है ....

    मुझे नहीं पता उर्दू में चर्चा शब्द है भी या नहीं ....मेरे शब्दकोष में तो नहीं है ....

    खैर अब यहाँ चर्चा 'चर्चा' शब्द के लिए नहीं आत्मसात या अहंकृति के लिए हो रही है ....
    इसलिए मैं अपने शब्द वापस लेती हूँ ....

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  38. Are baba re.. ye to Ghamaasaan ho raha h.. mind u ladies n gentlemen, u r commenting over a post which has Gandhi ji in its centre.. neways i hardly mind it.. nice blog Mr. Utsaahi.. :)

    जवाब देंहटाएं
  39. @ हरकीरत जी आप पुराने शब्‍द वापस ले रहीं,जिसकी कोई जरूरत नहीं है। क्‍योंकि हम सब यहां विमर्श ही तो कर रहे हैं। कभी कोई जल्‍दी में कुछ कह जाता है तो कोई आराम से सोच सोचकर लिखता है।
    कोई भी अहंकृति के लिए नहीं लिख रहा है। मैंने दो और उदाहरण दिए सिर्फ यह बताने के लिए इस तरह भी उपयोग होता है।

    आपने फिर एक बात कह दी कि उर्दू में चर्चा है भी कि नहीं। आपके शब्‍दकोष में नहीं है। आपके किस शब्‍दकोष में नहीं है,हिन्‍दी शब्‍दकोष में या उर्दू शब्‍दकोष में।

    मेरी कविता शुद्ध हिन्‍दी की कविता है यह आपने तय कर लिया। लेकिन उसमें और भी ऐसे शब्‍दों का उपयोग हुआ है जो मूलत: उर्दू या फारसी के हैं।

    मुझे लगता है हम सबको हिन्‍दी,खड़ीबोली और उर्दू का इतिहास पढ़ना चाहिए। जानना चाहिए कि हम सब जो यहां लिख और पढ़ रहे हैं,वह वास्‍तव में है क्‍या।

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  40. @अरुण जी माफ करें,आपकी टिप्पणी का जवाब जरा देर से दे पा रहा हूं।

    सही बात है कि आपने अपनी कविता मुझे भेजी थी। माफ करें केवल पढ़ने के लिए नहीं बल्कि यह कहते हुए कि मैं इसे जल्दी ही पोस्ट करना चाहता हूं, मेरे पास समय नहीं है,अत: आप बताएं कि कैसी है। जाहिर है जब आप पूछेगें तो मैं प्रतिक्रिया तो दूंगा ही। जो मुझे उचित लगा वह मैंने कहा। अरुण जी मैं अभी भी अपनी बात पर कायम हूं। अभी भी पूछ रहा हूं कि आपकी कविता में नया क्या है। महात्मा कहां हैं। और जो मैंने कहा था कि आपकी कविता पर टिप्पणियां आएंगी,अच्छी है,सशक्त है,सटीक है आदि। वे टिप्पणियां आईं भीं और आपने ही चैट बाक्स में मुझसे यह बात बांटी।

    जवाब देंहटाएं
  41. @अरुण जी,
    अपनी लकीर को बड़ा करने के लिए दूसरे की लकीर को छोटा करना अच्छी बात नहीं मानी जाती। यह आप बेहतर जानते हैं। मुझे अच्छा अब भी लग रहा है कि आपने मेरी कविता पर कुछ कहने की हिम्मत की। (क्योंकि आपके ही शब्दों में आपको डर लगता है।) मुझे और अच्छा लगता अगर आप अपनी कविता और उस पर हुए हमारे संवाद को साथ रखे बगैर बात करते। वह वास्तव में एक ईमानदार कोशिश होती । बहरहाल...आपने टिप्पणी की तो।

    आपने सही कहा पहली कविता भटकाव की कविता है। कवि खो गए महात्मा को ढूंढ रहा है। लेकिन अगली पंक्ति में आप गच्चा खा गए। असल में दोष आपका नहीं बल्कि आपके उस उतावलेपन का जिसका जिक्र में आपसे कई बार कर चुका हूं। तुष्टिकरण का चश्मा आपने भी पहन रखा है इसलिए आपके पास उसे उतारने का समय ही नहीं है। अरुण जी कवि संतुष्ट इसलिए नहीं है, कि ज़मीन के बंटवारे में किसी वर्गविशेष को ज़मीन दे दी गई है। और न कवि इस बात की बधाई देने के लिए महात्मा को खोज रहा था, कवि बधाई देना चाहता था कि इस फैसले के बाद जो अमन और चैन कायम था, वह एक दिन पहले तक दुर्लभ नजर आ रहा था। खून खराबा होता दिखाई दे रहा था।

    और अरुण जी गांधी जी के साथ आप मेरी तुलना क्यों करने लगे। कहां बापू और कहां हम।

    कौवे का बिम्बं आप कहां खोजेंगे,छोडि़ए भी। कौवे अपनी चोंच रोज ही साफ करते दिख जाते हैं।

    दूसरी कविता आपको फिल्मी लगी। अब भैया उसमें फिल्म की बातें हैं तो फिल्मी लगेगी ही। वैसे मैं इल्मी कवि ही कहा हूं।

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  42. @ अरुण जी ,
    वैसे मैं इल्‍मी कवि ही कहां हूं।
    तीसरी कविता के बारे में आपने लिखा कि पाठ्यपुस्तकों में हजार चीजें होती हैं,उनकी तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता, और हम देना भी नहीं चाहते। ऐसे में गांधीजी वहां संदेश के साथ हैं तो क्या् बुरा है। यह कहकर तो आप मेरी ही बात की पुष्टि कर रहे हैं। यानी जिस बात या जानकारी से आपको बच्चों को दूर रखना हो वह उनकी पाठ्यपुस्तक में डाल दो। क्यों कि हमारी पाठ्यपुस्तक की बातें केवल परीक्षा पास करने के लिए होती हैं, जीवन में उतारने के लिए नहीं।

    सही कहा आपने कि कवि अंत में अपना धैर्य खो देता है। मुझे इसी में कवि की सफलता नजर आती है कि वह पाठक के रुबरु खड़ा होकर सवाल पूछता है। अरुण जी सवाल केवल शिक्षक नहीं पूछते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था की यही सबसे बड़ी विडम्बना है कि सवाल पूछने को केवल शिक्षक की बपौती मान लिया गया है। दूसरी बात यहां आपने ‘समझ’ शब्द को भी नहीं समझा।

    और यह बात तो आपने बिलकुल ठीक कही कि मेरी कविता महात्माहविहीन है। सच है मैं तो महात्मा को खोजने निकला था,वह तो मुझे नहीं मिले न। मिलते तो मेरी कविता में नजर आते। मेरी कविताओं के शीर्षक पर विचार कीजिए।

    और अरुण जी आपने अनजाने ही वह बात कह दी जो मैं आपमें और आपकी कविताओं में खोजता रहता हूं। कवि अपनी कविता के बहाने अपने आसपास की समीक्षा ही तो कर रहा होता है।

    उम्मीद है अब तो आपका डर जाता रहा होगा।

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  43. चौथी कविता बहुत अच्छी लगी।
    चर्चा पर इतनी बहस देखकर ढेर सारा दिमाग खर्च हो गया।
    ..एक बार पहले भी पढ़कर भागा था।

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  44. कितना दुःख होता है जब देखते हैं के हमारे देश के महात्माओं की नाक सिर्फ कव्वे की चौंच साफ़ करने का उपकरण मात्र है...सिर्फ एक निश्चित तारीख़ को हम उस पुतले को जिसे महात्मा नाम दिया है साफ़ सफाई करने की ज़हमत उठाते हैं और फिर भूल जाते हैं...
    नीरज

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  45. पिछली टिप्पणी में टंकण में कुछ त्रुटियाँ हो गई थीं!
    कृपया क्षमा करेंगे!
    --
    मुझे तो आश्चर्य इस बात पर हो रहा है कि महात्मा गांधी जी के ऊपर चार उत्कृष्ट कविताओं के बारे में अधिकांश लोग कुछ भी नही कह रहे हैं और वे केवल चर्चा पर अटक कर रह गये हैं!
    --
    मेरी समझ के अनुसार -
    यदि चर्चा शब्द का प्रयोग उर्दू में किया जाता है तो उसे पुर्लिंग में प्रयोग करते हैं और यदि हिन्दी में चर्चा शब्द का प्रयोग किया जाता है उसे स्त्रीलिंग में प्रयोग करते हैं!
    --
    अगर यह मान लें कि "चर्चा" न स्त्रीलिंग है और न ही पुर्लिंग है तो सारा विवाद ही समाप्त हो जायेगा! अर्थात चर्चा नपुंसकलिंग है! चाहे इसे स्त्रीलिंग में प्रयोग करो या पुर्लिंग में!

    जवाब देंहटाएं
  46. अहिंसा के पुजारी गाँधी जी प्के नाम पर इतना बवाल? कम से कम जो सब की आलोचना करते हैं उन्हें तो चुप रह कर सब की प्रतिक्रिया कबूल करनी चाहिये। दूसरों की रचनायें रचनायें न हुयी ? मगर ब्लाग जगत मे ऐसा ही होता है कोई आलोचना का जवाब दे तो कमेन्ट करने वाले गुस्से मे लाल पीले हो जाते हैं। अगर आलोचना हुयी है तो लेखक का दायित्व बनता है कि उस आलोचना को स्पष्ट करे और अगर वो अपना दायित्व निभाता है तो कमेन्ट करने वाला ब्लागर ये कह कर चल देता है कि आगे से आपके ब्लाग पर नहीआऊँगा। जब कि खुद वो कहाँ गलत है ये समझने का प्रयास नही करता।। अरुन जी की बात से सहम्त हूँ। दूसरो की रचनाओं को बिना उसकी "विषय वस्तु" समझे आलोचना करना बहुत आसान होता है मगर जब वही बात खुद कही जाती है तो वो सही होती है। लेकिन इतिहास खुद को दोहराता है। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  47. हाँ मै यहाँ टिप्पणी करने इस लिये आयी कि मुझे आपकी मेल मिली है। अब कुछ दिन छुट्टी पर जा रही हूँ बाकी चर्चा आ कर देखूँगी।

    जवाब देंहटाएं
  48. पहली बात : चारों रचनाएँ सच को दर्शाती बेहतरीन प्रस्तुति हैं ।

    दूसरी बात : चर्चा की चर्चा में पड़कर सारा ध्यान बहस पर आ गया है । ये बात तो सभी जानते हैं कि बहस का न कोई अंत होता है और न कोई जीतता हारता है । यहाँ आप यह भी समझ गए होंगे कि चर्चा के बारे में मैं हरकीरत जी से सहमत हूँ ।

    तीसरी बात : इतनी बहस के बाद कोई भी क्षुब्ध हो सकता है । हरकीरत जी कोई अपवाद नहीं ।

    चौथी बात : राजेश भाई , सच को सुनना हमेशा कड़वा होता है । आपकी रचनाओं में भी कड़वी सच्चाई है । कवियों को तो सच्चाई बोलने की आदत होती है । इसलिए जहाँ भी अवसर मिलता है , बोल दी जाती है ।

    जवाब देंहटाएं
  49. चर्चा...
    हिंदी शब्द...स्त्रीलिंग.....

    मगर शायरी की जबान में हमने हमेशा पुल्लिंग रूप में ही देखा है .... और उस में शायद ये स्त्रीलिंग में जमता भी नहीं...
    अगर आम बोलचाल के शब्द हों तो दोनों ही प्ररोग किये जा सकते हैं..... मगर ज़रा मिज़ाज देखकर...

    :)

    जवाब देंहटाएं
  50. चर्चा अभी जारी है। दो और उदाहरण दे रहा हूं जिनमें चर्चा को पुल्लिंग के तौर पर इस्‍तेमाल किया गया है। दोनों उदाहरण फिल्‍मों से हैं। पहला है 1969 की फिल्‍म 'आदमी और इन्‍सान' से। इसमें साहिर लुधियानवी का एक गीत है,जिसमें बीच में पंक्तियां हैं-

    ओ यारा दिलदारा
    मेरा दिल करता
    हो सदियों जहान में
    हो चर्चा हमारा

    दूसरा उदाहरण आज की चर्चित फिल्‍म दबंग से है। उसके मशहूर गीत मुन्‍नी बदनाम में पं‍क्तियां हैं-

    ओ मुन्‍नी रे गली गली में तेरा चर्चा रे
    जमा इश्‍क पर्चा रे

    जवाब देंहटाएं
  51. जहाँ तक मुझे लगा हरकीरत जी ने आपको भाषा समझाने की वजह से चर्चा पर चर्चा नहीं की.......उन्हें जैसा लगा उन्होंने वैसा बोल दिया वो भी इसलिए की उन्हें ऐसा लगा होगा की शायद आपसे कोई भूल हो गयी हो .....क्यूंकि हर किसी का अलग द्रष्टिकोण होता है......इसमें कुछ बुरा नहीं है.....पर मेरी नज़र में आपकी रचना पर किसी की टिप्पणी पर आपको और सिर्फ आपको जवाब देना चाहिए..........जिसका जवाब सिर्फ इतना है.............की 'साला' शब्द समाज में एक रिश्ता भी है और इसी समाज में उसे एक गली के रूप में भी लिया जाता है .........शब्द मायने नहीं रखते, भाव मायने रखते है .........कोई प्रेम से कहता है 'खाना खा लो' और कोई क्रोध से ...........शब्द तो वही हैं, पर भाव बदल जाते है ........ये सिर्फ और सिर्फ समय की बर्बादी है ........

    और क्योंकि मैं यहाँ पर आपकी मेल मिलने के कारण आया हूँ, इसलिए मैंने सिर्फ हरकीरत जी की टिप्पणियां पड़ी...........आपकी कवितायेँ बहुत अच्छी लगीं.......आप उम्र और तजुर्बे में मुझसे पड़े है, कोई गुस्ताखी हुई हो तो छोटा समझ के माफ़ करें |

    महात्मा बुद्ध ने कहा था संसार में सबसे आसन काम होता है दूसरों में गलती निकालना और सबसे मुश्किल है अपनी गलती को मानना |

    काश हम सब इन चीजों से ऊपर उठ पाते तो हम कम से कम इंसान हो जाते |

    सच के ऊपर जिसे हमेशा गाँधी जी के साथ जोड़ा गया है | इस देश में अगर किसी ने नंगा और कड़वा सच बोला है तो वो हैं ओशो |

    सच तो तुम्हे भरे बाज़ार में नंगा खड़ा कर देता है ...........

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गुलमोहर के फूल आपको कैसे लगे आप बता रहे हैं न....

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