रविवार, 6 जून 2010

इश्‍क बहुत गहरा था


हां, मैं झील के पानी सा ठहरा था,
क‍रता क्‍या सख्‍त बहुत पहरा था।

तोड़ भी सकता था उस बंधन को,
पर पार पे बसा गांव तो मेरा था।

चमन से उकता कर चले आए हम,
पर इंतजार में भी कहां सहरा था।

चीख चीख कर आवाज गवां बैठे हैं ,
कानों वाला, आंखों से भी बहरा था।

सब कहते हैं चढ़ती नदी में उतरे क्‍यों,
हम कहते हैं कि इश्‍क बहुत गहरा था।
               **राजेश उत्‍साही
(मई,2010 बंगलौर)

7 टिप्‍पणियां:

  1. गज़ब के शेर और आखिरी के दो तो दिल मे उतर गये।

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  2. bahut sunder abhivykti.............har pankti vaznee hai.........
    blog par aana zaree rahega .

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  3. आपकी कविता पढ़ी .इश्क बहुत गहरा था .. आपने बहुत सुंदर प्रतीक लिए हैं आपका अंदाज़ बहुत भाया . बधाई .

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  4. अपने पतिदेव डा हेमन्त कुमार जी से अक्सर आपका जिक्र सुनती थी----आज आपकी रचना पढ़ने का भी सौभाग्य मिला--बेहद सशक्त लेखनी है आपकी। विशेष रूप से अन्तिम शेर बहुत बेहतरीन लगा।

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  5. अरे तभी तो कहते है ये इश्क नही आसां इक आग का दरिया है......
    हा हा हा
    बेशक, पार उतरेगा वो ही खेलेगा जो तूफ़ान से.
    अच्छा लिखते हैं आप.

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  6. aaj pahli bar aapke blog par aana hua.. itni koi kabiliyat to nahin hai meri ki aap jaise sashakt kavi ki rachnao par tippani kar saku, par phir bhi kahungi ki aap bahut hi achha aur dil ko chhune wala likhte hai..
    sabhi kavitae bahut bahut pasand aayi..

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  7. @शुक्रिया स्वाति जी,
    ये आप जैसे कद्रदानों को ही समर्पित हैं। यह बात मैंने अपने ब्लाग के परिचय में भी लिखी है। अगर आपने परिचय न पढ़ा हो तो एक बार फिर से आएं गुलमोहर पर।
    और जहां तक काबिलियत की बात है तो सबसे जरूरी है विचार। अगर वह है तो आपको उसको अभिव्यक्तत करना ही चाहिए। विचार की ही कीमत है।
    इसलिए आपकी यह टिप्प़णी मेरे लिए बहुत मायने रखती है। क्योंकि आपने अपनी यह राय किसी एक कविता को पढ़कर नहीं बनाई है। वरन् मेरे पूरे कविता संसार को देखकर बनाई है। आभारी हूं।
    @ शुक्रिया वंदना जी,प्रज्ञा जी, इंदु जी, पूनम जी और अपनत्व जी का भी। आपको कविता पसंद आई। आभारी हूं।

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गुलमोहर के फूल आपको कैसे लगे आप बता रहे हैं न....

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