प्रेम
समय की टहनी
पर खिला गुलाब है
भर सको
तो भर लो
आंखों में उसके रंग
फेफड़ों में सुंगध
झड़ जाएंगी
पखुंडि़यां प्रेम की।
प्रेम
जल है
बहती नदी का
अंजुरी भर प्रेमजल से
धोओ अपनी आंखें
अपना चेहरा और आत्मा भी
प्रेम पवित्र करता है
प्रेम
दरअसल
व्यक्त करने की नहीं
महसूसने की चीज है।
0 राजेश उत्साही
(2000 की किसी तारीख को। उसे समर्पित जिसने इस कविता को पढ़कर मुझे फोन किया और कहा कि बहुत सुंदर है। जिसने यह कहा वह भी कम सुंदर नहीं है।)
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंप्रेम पर बहुत सुंदर और सही टिपण्णी की आपने . बधाई
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंPrem par likhi yeh kavita prem ko nikhar deti hain...:
जवाब देंहटाएंmemoreble .......
जवाब देंहटाएंएक स्तरीय कविता। विषय जितनी ही अर्थपूर्ण और सरस.
जवाब देंहटाएंविजयदशमी की शुभकामनाएं।