फोटो : राजेश उत्साही |
छूटते हुए आसमान
और खिसकती हुई जमीन पर
कब तक खड़ा रह पाऊंगा मैं
अपना संतुलन बनाए
कब तक ?
माना कि मेरे हाथ में है कलम
और स्वतंत्र हूं मैं
चाहे जिस पर लिखने के लिए
पर सवाल यह है
कि क्या
बिके हुए गणतंत्र में
उभर पाएगी मेरी अभिव्यक्ति
तुम्हारे अखबारी दिमागों में ?
0 राजेश उत्साही
गणतंत्र हुआ गनतंत्र, बिका हुआ अखबार, कलम की कुन्द हो चुकी धार,ऐसे में गुम हुआ लोकतंत्र और घुट चुकी है हर अभिव्यक्ति!!
जवाब देंहटाएंसच्चाई बयान करती रचना बेहद उत्कृष्ट लेखन...है आपका उत्साही जी
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं....!
उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ......गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना !
जवाब देंहटाएं'अखबारी दिमाग' का प्रयोग लाज़वाब है। वाह!
जवाब देंहटाएंआप स्वतन्त्र हैं और जो चाहते हैं लिख सकते हैं । तो गम कैसा । लिखते रहेंगे तो दिमाग में भी बैठेगी ही ।
जवाब देंहटाएंकैमरे का उपयोग बखूबी कर रहे हैं आप ।
जवाब देंहटाएंसहज शब्दों मे सार्थक बात कह दी आपने ..आभार ।
जवाब देंहटाएंमाना कि मेरे हाथ में है कलम
जवाब देंहटाएंऔर स्वतंत्र हूं मैं
चाहे जिस पर लिखने के लिए
पर सवाल यह है
कि क्या
बिके हुए गणतंत्र में
उभर पाएगी मेरी अभिव्यक्ति
तुम्हारे अखबारी दिमागों में ?...उभरे ना उभरे, प्रश्न कैसा ... अपनी आवाज़ रंग लाएगी ही - विश्वास है
बहुत बढ़िया!!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना.
आपके इस उत्कृष्ठ लेखन के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंAUB KOI GOOLSHAN N
जवाब देंहटाएंUJADE
AUB WATAN AAJAD HAI.
UDAY TAMHANE
BHOPAL
Bike huye gantantra mein....tumhare akhbari dimaagon mein....
जवाब देंहटाएंekdam sateek chintrankan..lajawab tasveer ka combination..
चलाइए क़लम हम बांच लेंगे। पढ़ने पर पाबंदी नहीं है।
जवाब देंहटाएंमनोज कुमार ने " गणतंत्र बनाम गमतंत्र " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जवाब देंहटाएंचलाइए क़लम हम बांच लेंगे। पढ़ने पर पाबंदी नहीं है।