*एक*
स्त्री
ही है
जो लाई है मुझे
इस दुनिया में
बनाया है जिसने अपनी
मिट्टी से गर्भ में
सिर पर
रखकर ममत्व भरे हाथ
दी है दृष्टि
दुनिया देखने की
स्त्री
ने ही
बोया है अंतस्
में असीम स्नेह
उसके
सौन्दर्य
ने किया है चकाचौंध
भरी है ऊर्जा सीने में
कहीं
स्त्री ही
भर पाई है
आवारा और अराजक
पुरुष में
एक गृहस्थ की गंध
जटिल
परिस्थितियों में
आया है याद
प्रेम
स्त्री का
उबारने मुझे
हारते
हुए जीवन में
आत्महत्या के कायर
विचारों को धमकाया है
जीवन से भरी
स्त्री और उसकी
बातों ने
स्त्री
ही है कि
रहेगी सदा साथ
या कि मैं रहूँगा स्त्री के साथ
पुन: मिट्टी होने तक।
*राजेश उत्साही
*दो*
स्त्री
तुम जा रही हो
लकड़ी चुनने या कि रोपने जंगल
स्त्री
तुम जा रही हो बोने सुख
या कि रखने बुनियाद
स्त्री
तुम पछीट रही हो आसमान
या कि गूँथ रही हो धरती
स्त्री
तुम कांधे पर ढो रही हो दुनिया
या कि तौल रही हो
आदमी की नीयत
स्त्री
तुम तराश रही हो मूर्ति
या कि गर्भ में मानव
स्त्री
तुम विचर रही हो अंतरिक्ष में
या कि समुद्र तले
स्त्री
तुम रही हो चार कदम आगे
या कि हो हमकदम
स्त्री
तुम बहा रही हो नयन से स्नेह
या कि आंचल से अमृत
स्त्री
तुम इस दुनिया में
या कि ब्रम्हांड में जहां भी
जिस रूप में हो
मैं तुमसे प्रेम करता हूं !
dono hi roop stri ke gazab ke prastut kiye hain........shukriya.
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंदोनों ही कवितायेँ बहुत ही सुन्दर हैं.
जवाब देंहटाएंदीपाली
भाई राजेश जी, आपके ब्लॉग पर आया पहली बार। स्त्री से जुड़ी दोनों कविताएं पढ़ीं। मुझे स्पर्श किया इन कविताओं ने। अच्छा लगा, आगे भी आपका ब्लॉग देखता रहूंगा।
जवाब देंहटाएं@शुक्रिया सुभाष जी, आपकी इस प्रतिक्रिया से मुझे बहुत समर्थन मिला है। @वंदना जी,@सुमन जी और @दीपाली का भी आभारी हूं।
जवाब देंहटाएंrajesh ji badi sahajta v aatmiyata se likhi gai ye donon kavitaen thahar kar padhane ko prerit karti hain baar-baar.
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