अपना कटा हुआ सिर लिए घूमता रहा मैं
सड़क पर आवारा
कोई
नहीं था जो करता
शिनाख्त
देखा
जिसने
वह अपरिचय के भाव से भर उठा
व्यक्त किया सबने
इस तरह जैसे वर्षों से नहीं मिला
मुझसा कोई
पहचानने
से इंकार कर दिया दोस्तों ने
रीझते थे
जो बातों पर मेरी
हमनिवाला हमप्याला थे
नहीं दौड़ा
उनकी नसों में भी खून
जो देखकर भर उठते थे
हिकारत से मुझे
वे
रहे
सहज ही नजदीकियों से मेरी
जो हो उठते थे
परेशान
चमक
उनकी आंखों में भी
नहीं दिखी
खिल उठती थीं बांछें जिनकी मुझे देखकर
यहां तक कि
भावशून्य रहा चेहरा उसका
लबों पर
नहीं हुई जुंबिश
जिन पर थिरकती थीं
तितलियां मुस्कान की
मेरे होने भर के अहसास से
अपना
कटा हुआ सिर लिए
घूमता रहा मैं सड़क पर
बदहवास
कल रात
कहीं
कोई
नहीं था जो करता शिनाख्त।
**राजेश उत्साही
(2002 की किसी सुबह को भोपाल में,साढ़े छह नंबर वाले घर 'चकमक' में)
राजेश भाई ,भयंकर दिन थे ,क्या ? चकमक वाले ? सशक्त अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंek behtreen kavita padhne ko mili mujhe.
जवाब देंहटाएंSuperb !
नहीं,अफलातून जी इतने भंयकर तो नहीं। फिर भी कविता में आप वही लिखते हैं जो महसूस करते हैं। असल में जब चकमक शुरू हुई तो उसका कार्यालय साढ़े छह नंबर पर एक एमआईजी फ्लैट में था। एकलव्य का कार्यालय अरेरा कालोनी के सेक्टर ई-1 में था। बाद में चकमक का कार्यालय भी एकलव्य वाले कार्यालय में ही लगने लगा। और यह फ्लैट चकमक की पोस्टिंग और उसके स्टॉक आदि के लिए उपयोग होने लगा। उन्हीं दिनों मैं होशंगाबाद से भोपाल शिफ्ट हुआ। मैं पत्नी और एक साल के बेटे कबीर के साथ इस फ्लैट के एक कमरे में रहने लगा। लेकिन फिर कुछ संयोग ऐसा हुआ कि मैं 1987 से 2002 तक इस फ्लैट में रहा। इस दौरान इसका नाम चकमक ही पड़ गया। और हम आज भी उसे चकमक वाले घर के से ही याद करते हैं। अब तो यह घर नहीं है। इसे तोड़कर उसकी जगह तिमंजिला इमारत बना दी गई है। आजकल उसमें छत्तीसगढ़ पर्यटन विकास निगम का कार्यालय है।
जवाब देंहटाएंनहीं,अफलातून जी इतने भंयकर तो नहीं। फिर भी कविता में आप वही लिखते हैं जो महसूस करते हैं। असल में जब चकमक शुरू हुई तो उसका कार्यालय साढ़े छह नंबर पर एक एमआईजी फ्लैट में था। एकलव्य अरेरा कालोनी के सेक्टर ई-1 में था। बाद में चकमक का कार्यालय भी एकलव्य वाले कार्यालय में ही लगने लगा। और यह फ्लैट चकमक की पोस्टिंग और उसके स्टॉक आदि के लिए उपयोग होने लगा। उन्हीं दिनों मैं होशंगाबाद से भोपाल शिफ्ट हुआ और अपनी पत्नी तथा एक साल के बेटे कबीर के साथ इस फ्लैट के एक कमरे में रहने लगा। कुछ संयोग ऐसा हुआ कि मैं 1987 से 2002 तक इसमें रहा। इस दौरान इसका नाम चकमक ही पड़ गया। हम आज भी उसे चकमक के नाम से ही याद करते हैं। हालांकि अब यह घर नहीं है। इसकी जगह तिमंजिला इमारत खड़ी हो गई है। आजकल उसमें छत्तीसगढ़ पर्यटन विकास निगम का कार्यालय है।
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