शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

खुश होता है छोकरा: चार

रद्दी पेप्‍पर कबबबबबबबबबबबबबबबबाड़ा
की लंबी आवाज लगाता छोकरा
इशारा पाते ही
घर के दरवाजे पर आ बैठता है
स्‍कूल बैग लिए

बैग में किताबें नहीं होती
पर असली ज्ञान होता है जीविका का
बैग में होती है
एक तराजू और चंद बाट
बाट लोहे के और कुछ पत्‍थरों के

छोकरा
निकालता है तराजू और
करीने से उसकी डंडी में बीचोबीच बंधी सुतली को
अपने एक हाथ की मुठ्ठी में लटकाकर
दोनों पलड़ों को संतुलित करता है
दिखाता है हमें

हम संतुष्‍ट नहीं होते
उसके हाथ से लेकर तराजू
खुद देखते हैं

बासी पड़े चुके समाचारों
और ठंडी पड़ चुकी सनसनियों की
रद्दी खरीदने आया है वह

वह तौलता है
हम एक भी अखबार ज्‍यादा नहीं देना चाहते
तुलवाते हैं इस तरह जैसे
कीमती असबाब बेच रहे हों उसे

देखकर बीच में कोई
रंगीन पत्रिका
ठहर जाता है वह
पलटने लगता है पन्‍ने
चिकने पन्‍ने और उन पर छपी दुनिया
देखकर उसकी आंखों में आ जाती है
अजीब सी चमक

तौलते तौलते रद्दी
पूछता है हौले से
कमरे के अंदर नजर डालता हुआ
कुछ कबाड़ा नहीं है और
प्‍लास्टिक, इलास्टिक ,टीन,टप्‍पर

हम उसे
लगभग झिड़कने के अंदाज में कहते हैं
नहीं है
जो है वह दे रहे हैं

छोकरा
समेटकर अपना बस्‍ता
बांधकर साइकिल पर 
या फिर डालकर हाथठेले में रद्दी 
चला जाता है आगे

छोकरा
रद्दी ले जाता है खरीदकर
हम खुश होते हैं बेचकर
खुश होते हैं कि हमने उससे कहीं अधिक दाम वसूले

छोकरा 
खुश होता है
उसने मारी हर बार डंडी
और बाबू साहब या कि मैडम पकड़ ही नए पाए
दस किलो के दाम में खरीद ली उसने पंद्रह किलो रद्दी

हमने ही सिखाई है उसे यह
होशियारी


छोकरा
खुश होता है
और शायद हम भी।

0राजेश उत्‍साही   



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